शहीदों हमें माफ करना!
पिछले दिनों पलामू का काला पहाड़ अचानक लाल हो गया़ इलाके में सात जवानों की मौत और इतने ही घायलों की खबरें आ गयीं. आगे का घटनाचक्र सब जानते हैं, क्योंकि यह घटना नयी नहीं है़ वही ताबूत, वही तिरंगा, दहाड़ मारती बूढ़ी मां, पिता को ढूंढते बच्चे और बेसुध पत्नियां़ इसके साथ ही शहीदों […]
पिछले दिनों पलामू का काला पहाड़ अचानक लाल हो गया़ इलाके में सात जवानों की मौत और इतने ही घायलों की खबरें आ गयीं. आगे का घटनाचक्र सब जानते हैं, क्योंकि यह घटना नयी नहीं है़ वही ताबूत, वही तिरंगा, दहाड़ मारती बूढ़ी मां, पिता को ढूंढते बच्चे और बेसुध पत्नियां़ इसके साथ ही शहीदों के परिजनों को सांत्वना राशि और घटना की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी के गठन की सरकार की ओर से घोषणा.
प्राय: हर बार ऐसा ही होता है. इसमें नया क्या है? नया है तो बस वह ‘जवान’ जिसके नाम के आगे ‘शहीद’ लिखा जायेगा़ वर्षों से हमारे सूबे के वीर सपूतों की बलि चढ़ती रही है़ हरे-भरे जंगलों की जमीन धमाकों से थर्राती है, दरकती है और निगल जाती है हमारे रखवालों को़ हमारी राजनीति आखिर कब इतनी ताकतवर होगी, कि वह ऐसी घटनाओं और उनकी वजहों पर अंकुश लगा सके? चाहे वह पलामू हो या सारंडा या बस्तर, यह सिलसिला कब थमेगा?
बार-बार एक जैसे धमाके, एक जैसी मौतें और एक जैसी चीख हम क्यों अनसुनी कर देंते हैं? दो दिन मातम और फिर वही डफली, वही राग. सामने होता है एक नया चेहरा, एक नयी साजिश़ यह हमारी घिनौनी राजनीति का नमूना है या कमजोर इच्छाशक्ति का सबूत? दुनिया भर घूम-घूम कर असलहों का जखीरा इकट्ठा कर हमें क्या हासिल होगा, जब घर के अंदर मौत का तांडव चल रहा रहा हो. हरे-भरे जंगल लहूलुहान हो रहे हों.
शहीदों हमें माफ करना! जमीन से आसमान तक की निगहबानी हमने पक्की की, मगर अभी तक कोई ‘रफेल’ नहीं खरीदी, जो इस भीतरघात को मात दे सके़ हम ‘मिशन मार्स’ में सफल हो जाते हैं, तो ‘मिशन मार्क्स’ में असफल क्यों हैं? इस आग को बुझाना ही होगा. वरना यह आग हम सब को जला देगी़ ऐसा न हो एक दिन शहीदों के लिए जमीन कम पड़ जाये और बजाने को बस मातमी धुन ही शेष रह जाये़
À एमके मिश्रा, रातू, रांची