।। डॉ भरत झुनझुनवाला।।
(अर्थशास्त्री)
ठाकुर साहब के दो श्रमिक थे- दबंग सिंह और गरीबदास. दबंग सिंह बोलने में निपुण था. वह ठाकुर साहब से बात कर दोनों के वेतन बढ़ा लेता था. समय क्रम में ठाकुर साहब अंगूर की खेती करने लगे. श्रमिकों की संख्या दस हो गयी. तब दबंग सिंह ने ठाकुर साहब को समझाया कि दसों के वेतन बढ़ाने के बजाय उसे सुपरवाइजर बना दें और उसकी सैलरी दोगुनी कर दें. श्रमिकों को वह चुप करा देगा. ठाकुर साहब ने उसे सुपरवाइजर बना दिया. शेष श्रमिकों को वेतन के नाम पर एक जोड़ा धोती मात्र दिया गया. दबंग सिंह के दबाव में गरीबदास कुछ न कर सका. कुछ ऐसी ही कहानी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की है.
ट्रेड यूनियनों की शुरुआत 150 वर्ष पूर्व इंग्लैंड में हुई थी. उस समय श्रमिकों पर घोर अत्याचार किये जाते थे. ऐसी दुरूह परिस्थिति में इंग्लैंड में फैक्ट्री एवं ट्रेड यूनियन एक्ट लागू किया गया. श्रमिकों की न्यूनतम आयु, कार्य के घंटे तथा न्यूनतम वेतन की व्यवस्था की गयी. श्रमिकों को राहत मिली. लेकिन यह भारतीय श्रमिकों के लिए अभिशाप बन गयी. हुआ यूं कि फैक्ट्रीज एक्ट लागू होने से इंग्लैंड में उत्पादन की लागत बढ़ी. परंतु इंग्लैंड को भारत जैसी कॉलोनियों से भारी आय मिल रही थी. इस आय के एक अंश का उपयोग इंग्लैंड के श्रमिकों को सुविधाएं देने के लिए किया गया. इससे इंग्लैंड के श्रमिकों की ऐरेस्टोक्रेसी स्थापित हो गयी. भारतीय श्रमिकों की गरीबी और इंग्लैंड के श्रमिकों की ऐरेस्ट्रोक्रेसी एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में सामने आये. इस बात का खुलासा कोई और नहीं, बल्कि कार्ल मार्क्स ने किया था. अपने रूसी मित्र कौट्स्की को लिखे पत्र में मार्क्स ने कहा, ‘आप पूछते हैं कि इंग्लैंड के श्रमिक कॉलोनियों के प्रति इंग्लैंड की पॉलिसी के बारे में क्या सोचते हैं? वे वही सोचते हैं जो कि राजनीति के बारे में पूंजीपति सोचते हैं. इंग्लैंड की कॉलोनियों पर स्थापित मोनोपोली के महाभोज में यहां के श्रमिक अपना हिस्सा प्राप्त करके प्रसन्न हैं.’ इंग्लैंड के श्रमिकों ने उद्यमियों के साथ गंठबंधन बना कर शेष विश्व के श्रमिकों का शोषण किया.
मूल विषय उद्यमी और और श्रमिक के बीच लाभ के बंटवारे का है. उद्यमी चाहता है कि लाभ का अधिकाधिक हिस्सा वह स्वयं हासिल कर ले. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह डिवाइड एंड रूल की नीति अपनाता है. श्रमिकों के एक हिस्से को वह अलग कर लेता है. इन चंद लेबर ऐरिस्टोक्रेटों को पोषित करके वह शेष श्रमिकों का शोषण करता है.
इस पृष्ठभूमि में केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हाल में की गयी हड़ताल को समझना चाहिए. हड़ताल निष्प्रभावी रही, परंतु मूल विषय ज्यों का त्यों खड़ा है. यूनियनों की मांग है कि दस हजार रुपये प्रतिमाह का न्यूनतम वेतन घोषित किया जाये, आउटसोर्सिंग कर्मियों को नियमित कर्मियों और ठेकेदारी पर लगे श्रमिकों को नियमित श्रमिकों के समतुल्य वेतन दिये जायें. इन मांगों को मानने से श्रम के मूल्य में वृद्धि होगी. तब उद्यमी का प्रयास होगा कि श्रमिकों का उपयोग कम और मशीनों का उपयोग ज्यादा करे. सत्तर के दशक में एक मिल की क्षमता दो हजार बोरे चीनी प्रतिदिन बनाने की थी. उस समय दो हजार श्रमिक कार्य करते थे. आज मिल की क्षमता पांच हजार बोरे प्रतिदिन की है, परंतु श्रमिकों की संख्या घट कर पांच सौ हो गयी है. अनेक कार्य पूर्व में श्रमिकों के द्वारा कराये जाते थे, जिन्हें आज ऑटोमेटिक मशीनों द्वारा कराया जा रहा है, क्योंकि श्रमिकों के वेतन उंचे हैं. सत्तर के दशक में दत्ता सामंत के नेतृत्व में मुंबई के टेक्सटाइल मिलों में सफल हड़ताल हुई. तब वेतन में वृद्धि हुई. नतीजा हुआ कि उद्यमियों ने अपने कारखाने सूरत में लगा लिये. मुंबई का धंधा चैपट हो गया. बंगाल की लेफ्ट फ्रंट सरकार ने नब्बे के दशक में घेराव को प्रोत्साहन दिया. नतीजा हुआ कि बंगाल से तमाम उद्यम पलायन कर गये. तात्पर्य यह कि ट्रेड यूनियनों की मांगें स्वीकार होने से श्रम का मूल्य बढ़ेगा, उद्यमी मशीन का उपयोग अधिक करेंगे और रोजगार घटेंगे.
यूनियनों की मांग है कि श्रम कानूनों को सख्ती से लागू किया जाये. पर वर्तमान श्रम कानून मूलरूप से अप्रासंगिक हो चुके हैं. इससे कार्यरत श्रमिकों को लाभ होता है, परंतु यह श्रमिकों के विशाल समुदाय के लिए हानिकारक है. हमारी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का उद्देश्य अपने सदस्यों के वेतन में वृद्धि हासिल करना मात्र है. इन्हें आम श्रमिकों से कुछ लेना देना नहीं है. मेरा उद्देश्य दबंग सिंह की भर्त्सना करके ठाकुर साहब की वकालत करना नहीं है. मेरा उद्देश्य है कि ठाकुर साहब को डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी लागू करने से रोका जाये. ऐसी नीतियां बनायी जायें कि हर गरीबदास को रोजगार मिले और उद्यमी के लिए श्रमिक को रोजगार देना लाभप्रद हो जाये. रोजगार हनन करनेवाली मशीनों पर टैक्स लगाना चाहिए, अधिक रोजगार देनेवाली इकाइयों को श्रम कानून के साथ-साथ इनकम टैक्स में छूट देनी चाहिए तथा सरकारी ठेकों में व्यवस्था करनी चाहिए कि कार्य मशीनों से नहीं, बल्कि श्रमिकों से कराया जाये.