बाजारवाद से संतप्त प्रेम
प्रेम वह कोमल एहसास है, जिसे शब्दों में पिरोया नहीं जा सकता. लेकिन औद्योगीकरण और उदारीकरण के बाद प्रेम की धाराणाएं बदली हैं. इसमें अतिशयोक्ति नहीं है कि इसने बंधनों, रूढ़ियों और धार्मिक पाखंडों की मान्यताओं को तोड़ा है. प्रेम के लिए समाज प्रगतिशील हुआ है. प्रेम के संदर्भ में समाज की विचारधाराएं बदली हैं. […]
प्रेम वह कोमल एहसास है, जिसे शब्दों में पिरोया नहीं जा सकता. लेकिन औद्योगीकरण और उदारीकरण के बाद प्रेम की धाराणाएं बदली हैं. इसमें अतिशयोक्ति नहीं है कि इसने बंधनों, रूढ़ियों और धार्मिक पाखंडों की मान्यताओं को तोड़ा है. प्रेम के लिए समाज प्रगतिशील हुआ है. प्रेम के संदर्भ में समाज की विचारधाराएं बदली हैं. गांधी जी ने कहा था कि हमें अपनी खिड़कियां खोल देनी चाहिए, ताकि बाहर की स्वच्छ हवा और धूप अंदर भी आ सके.
वास्तव में, हमने कूटनीति, विदेश नीति और व्यापार के साथ प्रेम की भी खिड़कियां खोल दी हैं. तभी तो रोम के संत वेलेंटाइन के बलिदान दिवस को हम ‘वेलेंटाइन डे’ के रूप में पूरे देश में मनाते हैं. मैं मानता हूं कि प्रेम के इजहार में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इस पूरे सप्ताह मानये जाने वाले ‘वैलेंटाइन वीक’ ने उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया है. सामान्यत: इसने प्रेम का बाजारीकरण किया है और बाजारवाद को बढ़ाया है.
रोज डे, प्रॉमिस डे, किस डे, चाॅकलेट डे जैसी विभिन्न रस्में बाजार पर आधारित हैं. युवाओं का पश्चिमीकरण हुआ है. वे अपनी सभ्यता और संस्कृति के तंतुओं से कट रहे हैं. इस बात को समझना होगा कि प्रेम बेहद निजी, कोमल और सूक्ष्म विषय है. बाजारवाद का ही परिणाम है कि युवा पीढ़ी किशोरावस्था में ही परिपक्व हो रही है. प्रेम में ‘लव, सेक्स और धोखा’ का प्रचलन बढ़ रहा है.
‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसे प्रेम के आधुनिक स्वरूप ने प्रेम की भावनाओं, अनुभूतियों और चेतना का कत्ल किया है. युवा पीढ़ी प्रेम का अंधानुकरण करके पथभ्रष्ट हो रही है. परिवार टूट रहे हैं. सामाजिकता में दरार आयी है. ‘कबीरा खड़ा बाजार में’, पहले यही था, लेकिन अब सीधा कबीरदास का बाजार हमारे घर में, संसार में और प्रेम में घुस गया है.
-चंद्रशेखर कुमार, रांची