धनकुबेरों पर रहम
साधारण किसान या दुकानदार यदि किसी मजबूरी में बैंक को कुछ हजार रुपये का कर्ज नहीं चुका पाता है, तो उसकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती की जा सकती है और उसे किसी तरह का नया ऋण नहीं मिल सकता है. उसे आर्थिक दंड के साथ अधिक ब्याज और कारावास की सजा भी हो सकती है. लेकिन, […]
साधारण किसान या दुकानदार यदि किसी मजबूरी में बैंक को कुछ हजार रुपये का कर्ज नहीं चुका पाता है, तो उसकी संपत्ति की कुर्की-जब्ती की जा सकती है और उसे किसी तरह का नया ऋण नहीं मिल सकता है.
उसे आर्थिक दंड के साथ अधिक ब्याज और कारावास की सजा भी हो सकती है. लेकिन, अगर आप बड़े उद्योगपति हैं, तो आपके करोड़ों-अरबों रुपये का कर्ज माफ किया जा सकता है तथा आप नया ऋण भी ले सकते हैं.
एक अंगरेजी अखबार द्वारा सूचना के अधिकार के तहत रिजर्व बैंक से हासिल जानकारी यही संकेत करती है. पिछले तीन वित्तीय वर्ष (मार्च, 2015 तक) में सार्वजनिक क्षेत्र के 29 बैंकों ने बड़ी कंपनियों के 1,14,182 करोड़ रुपये माफ किये हैं, जिनमें से 85 फीसदी ऋण सिर्फ पिछले वित्त वर्ष में माफ हुए हैं. यह राशि इन तीन सालों के पहले के नौ वित्त वर्षों में माफ की गयी रकम से बहुत अधिक है.
मार्च, 2012 में कुल 15,551 करोड़ रुपये बैड लोन के रूप में फंसे थे, जो पिछले साल बढ़ कर 52,542 करोड़ रुपये हो गये थे. वर्ष 2004 से 2012 के बीच इस बुरे ऋण में वृद्धि की दर महज चार फीसदी थी, जो 2013 से 2015 के बीच 60 फीसदी तक जा पहुंची. इन आंकड़ों को देख कर यह कहना गलत नहीं होगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का वित्तीय प्रबंधन बहुत हद तक लचर और लापरवाह हो गया है.
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और वित्त मंत्री अरुण जेटली भी बुरे कर्जों की राशि लगातार बढ़ते जाने को लेकर कई बार चिंता जता चुके हैं, लेकिन इस संबंध में कोई नीतिगत पहल या ठोस कार्रवाई करने में वे नाकाम रहे हैं.
माफ की गयी इस मोटी रकम से हजारों किलोमीटर लंबी सड़क बन सकती थी, ग्रामीण रोजगार योजना का विस्तार हो सकता था, खाद्य सुरक्षा, कृषि और नवोन्मेष के क्षेत्रों में बड़ा निवेश हो सकता था या फिर शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित सुविधाएं बढ़ायी जा सकती थीं. इससे छोटे किसानों और कारोबारियों को मदद देकर अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जा सकती थी. विडंबना यह है कि इस धन के अलावा बुरे कर्ज के रूप में चिह्नित बड़ी धन राशि को नयी शर्तों के साथ अलग ऋण में बदल दिया जाता है और डिफॉल्टरों को नये कर्ज भी दिये जाते हैं.
बैंकों की ऐसी नीति देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिशों पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं. अगर सरकार और रिजर्व बैंक ने इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण नहीं लगाया, तो देश के विकास की आंकाक्षाएं फलीभूत नहीं हो सकेंगी और राष्ट्रीय धन का बड़ा हिस्सा धनकुबेरों की तिजोरी में जमा होता जायेगा.