खेती की जरूरत
यह सच है कि सरकार ने दलहन और तेलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष उपाय किये हैं, लेकिन यह भी सच है कि खाद्यान्न के मामले में वर्षों पहले आत्मनिर्भरता हासिल कर चुका हमारा देश जरूरत भर दलहन और तेलहन फसलें नहीं उपजा पा रहा. बीते वित्त वर्ष में देश ने करीब 1.4 करोड़ […]
यह सच है कि सरकार ने दलहन और तेलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष उपाय किये हैं, लेकिन यह भी सच है कि खाद्यान्न के मामले में वर्षों पहले आत्मनिर्भरता हासिल कर चुका हमारा देश जरूरत भर दलहन और तेलहन फसलें नहीं उपजा पा रहा. बीते वित्त वर्ष में देश ने करीब 1.4 करोड़ टन खाद्य तेल का आयात किया और इस एवज में साढ़े 10 अरब डॉलर की मुद्रा चुकायी. जाहिर है, तेलहन के उत्पादन में इजाफा भारत की त्वरित जरूरत है और खाद्य तेलों में एक चौथाई हिस्सा सरसों तेल का होने के कारण सरसों का उत्पादन बढ़ाना एक अच्छा विकल्प हो सकता है.
ऐसे में सरसों के आनुवांशिक रूप से प्रसंस्कृत (जीएम) बीजों (डीएमएच-11) से इसकी पैदावार में 30 से 40 फीसदी तक की बढ़वार के अनुमानों के मद्देनजर इसकी खेती के लिए तुरत-फुरत अनुमति मिल जानी चाहिए थी.
लेकिन, देश के जैव-प्रौद्योगिकी नियामक को फिलहाल ऐसा करना उचित नहीं लगा, तो इसकी वजहें तमाम विचारधारागत रुझानोंवाले किसान-संगठनों और इस मुद्दे पर सक्रिय नागरिक-संगठनों के विरोध तथा तर्क में खोजे जाने चाहिए. जीएम कपास की खेती के अनुभव बताते हैं कि इससे कपास का उत्पादन तो करीब ढाई गुना हो गया है, लेकिन यह फसल बहुत ज्यादा पानी की मांग करती है और कीटरोधी होने का इसका दावा भी सही साबित नहीं हुआ. दूसरी ओर इससे कपास के बीजों पर किसानों की परंपरागत मिल्कियत खत्म हो गयी है.
जीएम बीजों को बचाने का कोई तुक नहीं, क्योंकि उनसे सिर्फ एक ही फसल ली जा सकती है. साथ ही, इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति और मनुष्य तथा पशुओं की सेहत को होनेवाले नुकसान का भी पुख्ता आकलन होना जरूरी है. संक्षेप में कहें तो जीएम फसलें ज्यादा पैदावार देने में भले सक्षम हों, लेकिन खाद, बीज, सिंचाई के मद में उनकी वजह से किसानी का खर्चा बढ़ा है यानी किसानी पूंजी-निवेश प्रधान होकर किसानों पर कर्जदारी बढ़ानेवाली बन गयी है, जो कि किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं की प्रमुख वजहों में एक है.
एक ऐसे देश में, जहां आधी से ज्यादा कृषि भूमि मॉनसून के मिजाज पर निर्भर है, कृषि क्षेत्र का योगदान जीडीपी में लगातार घटते हुए 20 लाख करोड़ यानी सेवा-क्षेत्र की तुलना में तिहाई रह गया हो और 52 प्रतिशत किसान परिवारों पर औसतन 47 हजार रुपये का कर्जा हो, खेतीबाड़ी से जुड़े संकट का निदान महज जैव-प्रौद्योगिकी के चमत्कारों में खोजना अपर्याप्त है. जीएम फसलों को रामबाण समझने की बजाय, खेती को लाभकारी बनाने के लिए असली जरूरत ढांचागत और नीतिगत सुधारों की है.