जगानेवाला फैसला

शोर चाहे उल्लास का हो या विलाप का, उसकी पहली चोट सोच पर पड़ती है. शोर सोच को कुंद करता है, आंखों के आगे मौजूद सच्चाई पर सोचने नहीं देता. ऐसे में सोच को जगाने के लिए एक खबरदार करती, विवेक भरी आवाज की जरूरत होती है. अपने देश में हम अकसर यह भूमिका अदालतों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 11, 2016 1:52 AM
शोर चाहे उल्लास का हो या विलाप का, उसकी पहली चोट सोच पर पड़ती है. शोर सोच को कुंद करता है, आंखों के आगे मौजूद सच्चाई पर सोचने नहीं देता. ऐसे में सोच को जगाने के लिए एक खबरदार करती, विवेक भरी आवाज की जरूरत होती है. अपने देश में हम अकसर यह भूमिका अदालतों को निभाते हुए पाते हैं. मसलन, पिछले दिनों एक हाइकोर्ट ने आर्थिक विकास की तेजतर होती गति के शोर से भरे समय में सोच को जगाये रखने के लिए कहा कि शासन-प्रशासन भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में नाकाम रहता है तो लोगों को चाहिए कि वे असहयोग की नैतिक भावना के साथ टैक्स चुकाना बंद कर दें.
उधर, सूखे की मार झेल रहे देश के अधिसंख्य जिलों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करने में कुछ राज्यों को कोताही बरतता देख कर अदालत ने विवेक भरे स्वर में फटकार लगायी कि सामाजिक सुरक्षा की राजकीय जिम्मेवारी को ताक पर नहीं रखा जा सकता. नैतिक तेज से भरे फैसलों की इसी कड़ी में देश की सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से एक और महत्वपूर्ण फैसला आया है. इस बार अदालत ने फटकार के स्वर में नहीं, बल्कि निर्देश के स्वर में कहा है कि स्त्री-पुरुष की बराबरी का संविधान-सम्मत हक होने के बावजूद महिलाओं को जीवन के हर क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ता है और सरकार को चाहिए कि वह सरकारी सेवाओं में महिलाओं के साथ तरजीही बरताव करे, इससे पीछे नहीं हटे.
अदालत का साफ कहना था- ‘संविधान में औरतों और मर्दों को बराबर माना गया है, फिर भी भारत में महिलाएं कई तरह के लैंगिक भेदभाव का शिकार होती हैं. सच्चाई यह है कि उन्हें लैंगिक बराबरी हासिल करने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है.’
मामला छत्तीसगढ़ की एक महिला सब इंस्पेक्टर का था. राज्य की सिविल सर्विस परीक्षा पास करने के बावजूद उसकी नियुक्ति डीएसपी के पद पर नहीं हुई. नुक्ता बनाया गया कि महिला सब इंस्पेक्टर की उम्र निर्धारित अधिकतम आयुसीमा से ज्यादा है और उसके लिए आयुसीमा के मानक को शिथिल नहीं किया जा सकता. अदालत ने इसी कारण महिलाओं के लिए सरकारी सेवाओं में तरजीही बरताव की बात कहते हुए महिला सब इंस्पेक्टर के पक्ष में फैसला सुनाया.
इस फैसले के जरिये अदालत ने एक तरह से नीति नियंताओं के साथ-साथ पूरे समाज को याद दिलाया है कि बराबरी के संविधान सम्मत अधिकार को हासिल करने के लिए ऐसे समुदाय विशेष के सदस्यों के साथ तरजीही बरताव करना न्यायसंगत है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचना के शिकार हुए हैं. महिलाएं भी ऐतिहासिक रूप से वंचित ऐसे ही समुदायों में शामिल हैं.
यह बात तो जानी हुई है कि समाज की पितृसत्तात्मक बनावट ने पैदा होने से लेकर अपने शरीर या जीवन के बारे में कोई भी फैसला लेने तक, महिलाओं की राह को कठिन बना रखा है. लेकिन, यह बात दर्ज होने से अकसर रह जाती है कि एक वंचित समुदाय के रूप में महिलाओं को पितृसत्ता की कैद से बाहर निकालने के भारतीय संविधान के वादे के बावजूद आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी ऐसी स्थिति कायम नहीं हो पायी है और बहुधा राजसत्ता की बनावट के भीतर से भी पितृसत्तात्मक व्यवहार के पोषण की झलक दिख जाती है.
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान को ही लें. इसकी जरूरत ही इसलिए आन पड़ी, क्योंकि 0-6 आयुवर्ग के शिशुओं के बीच लिंगानुपात 1961 के बाद से ही लगातार घटता रहा है. 1991 में इस आयुवर्ग के प्रति हजार नर शिशुओं पर कन्या शिशुओं की संख्या 945 थी, जो साल 2001 में घट कर 927 और 2011 में 918 पर आ गयी. यह आंकड़ा साफ बताता है कि आजादी के इतने वर्षों में देश का सत्तावर्ग स्त्री के जन्म की परिस्थितियों को इस भांति नहीं गढ़ सका कि स्त्री का जन्म एक स्वाभाविक सामाजिक परिघटना बन सके.
साथ ही, यह बात भी सच है कि जब भी राजसत्ता ने महिलाओं के पक्ष में छोटा सा भी तरजीही कदम उठाया है, महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में वह मील का पत्थर साबित हुआ है. मिसाल के तौर पर बिहार में स्कूली बच्चियों को साइकिल देने या फिर पंचायती राज चुनावों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के फैसले को लें. इससे लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर कम हुई, तो चुनावों के दौरान मतदान प्रतिशत में महिलाएं पुरुषों से आगे निकल गयीं.
जाहिर है, इन दोनों फैसलों ने बिहार में महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी यानी जीवन-जगत के फैसलों को प्रभावित करने की उनकी ताकत में प्रत्यक्ष और सकारात्मक अंतर पैदा किया. इस अंतर की प्रशंसा अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध-अध्ययनों में भी हुई. अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बात की निशानदेही करता है कि महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए राजसत्ता को पहले से अधिक सक्रियता दिखानी होगी, ताकि महिलाएं परिवर्तन की एक ताकत रूप में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकें.

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