ऐसा पागलपन और कहां है.?
।। राजीव कुमार।। (प्रभात खबर, रांची) उपरोक्त शीर्षक एक टेलीकॉम कंपनी के पंचलाइन, ‘ऐसी आजादी और कहां’ से प्रेरित है. दरअसल इस शीर्षक को दूसरे रूप में ऐसे भी लिखा जा सकता है कि पागलपन की ऐसी आजादी और कहां! मोहल्ले में शादी हो या क्रिकेट मैच, सिनेमा हॉल हो या किसी कलाकार का लाइव […]
।। राजीव कुमार।।
(प्रभात खबर, रांची)
उपरोक्त शीर्षक एक टेलीकॉम कंपनी के पंचलाइन, ‘ऐसी आजादी और कहां’ से प्रेरित है. दरअसल इस शीर्षक को दूसरे रूप में ऐसे भी लिखा जा सकता है कि पागलपन की ऐसी आजादी और कहां! मोहल्ले में शादी हो या क्रिकेट मैच, सिनेमा हॉल हो या किसी कलाकार का लाइव कंसर्ट, हम लोग आयोजन के प्रयोजन को समङों या नहीं लेकिन अपने हाव-भाव से उसका हौवा जरूर बना देते हैं. मुश्किल यह है कि अवसर का मर्म और उसकी अद्यतन स्थिति समझने से पहले ही हम सब उसके मजे उठाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं.
चाहे जान-पहचान में किसी की शादी हो, सड़क पर दारू गटक कर पागलों की तरह उछल-कूद कर डांस करने की कोशिश करना, इस बात से बेखबर कि किसकी ओर से शादी में शरीक होने आये हैं. आम तौर पर मेहमान से अपेक्षा की जाती है कि वह लड़के की शादी में आया है तो संयमित तरीके से नाच-गा कर अपनी खुशी का इजहार कर सकता है. वहीं अगर मेहमान लड़की की शादी में शामिल होने आया है तो दुल्हन की भावी विदाई को ध्यान में रखते हुए उसके परिवारवालों की भावनाओं की कद्र करे. लेकिन यहां तो लोग ..आज मेरे यार की शादी है.. की धुनों पर लोग सड़क जाम कर ऐसे नाचने लगते हैं कि पता नहीं चलता कि वे लड़केवाले हैं या लड़कीवाले.
खैर, यह तो रही बात शादी में शरीक होने की. स्टेडियम में मैच और सिनेमा हॉल में फिल्म देखने के दौरान एक -एक शॉट पर तालियां तो ठीक, लोगों की सीटियां और वाह-गजब की चीखें माहौल का मजा किरकिरा करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं. ऐसे ही पिछले दिनों शहर के एक स्टेडियम में कंसर्ट का आयोजन था. एंट्री के लिए पास की व्यवस्था थी, जिसे पाने के लिए दीर्घउत्साहियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. जिसे निचले तबके का पास मिला था, उसे ऊपरी तबके के पास पाने की इच्छा थी और जिसे एक -दो पास मिले थे, वह चार-पांच की गुजारिश करता. दरअसल, कई लोगों के लिए अपने संबंधों और पहुंच को टटोलने और उन्हें कैस कराने का यही सही समय होता है. खैर, कार्यक्रम शुरू हुआ.
अब फिर इन दीर्घउत्साही लोगों के लिए कलाकार की परफॉर्मेस देखने-सुनने से ज्यादा उससे हाथ मिलाना, छूना जरूरी हो चला था. शायद कलाकार का स्पर्श मिलने से उनमें भी कलाकारी के कुछ गुण ब्लूटूथ की तरह ट्रांसफर हो जायें. मैदान में स्टेज के पास वीआइपी दीर्घा में बाकायदा रेड कार्पेट पर कुर्सियां लगी थीं. लेकिन अफसोस, लोगों का फिर वही दीर्घउत्साह! लोग गाने को एंजॉय करने में ऐसे मशगूल हो गये कि हर कोई अपने-अपने तरीके से बदन हिलाने लगा. उत्साह तो बहुत अच्छी चीज होती है और सबके भीतर यह होना भी चाहिए, लेकिन अगर यह जरूरत से ज्यादा बढ़ जाये तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है और ऐसा उत्साह आगे बढ़ कर पागलपन की सीमा में घुस जाता है, पता नहीं चलता.