इशरत के बहाने
डेविड कोलमैन हेडली. पाकिस्तानी मूल का यह अमेरिकी नागरिक पहले दाऊद सैयद गिलानी के नाम से जाना जाता था. बाद में हेडली कहलाया. दोहरे नामवाले इस व्यक्ति के किरदार भी अजीब रहे हैं. उसने पहले अमेरिका के ड्रग एन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन, जिसका काम अमेरिका में मादक द्रव्यों की तस्करी और उपयोग पर निगरानी करना है, के […]
डेविड कोलमैन हेडली. पाकिस्तानी मूल का यह अमेरिकी नागरिक पहले दाऊद सैयद गिलानी के नाम से जाना जाता था. बाद में हेडली कहलाया. दोहरे नामवाले इस व्यक्ति के किरदार भी अजीब रहे हैं.
उसने पहले अमेरिका के ड्रग एन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन, जिसका काम अमेरिका में मादक द्रव्यों की तस्करी और उपयोग पर निगरानी करना है, के लिए बतौर जासूस पाकिस्तान में काम किया. पाकिस्तान में गया, तो वहां की खुफिया एजेंसी आइएसआइ और आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से हाथ मिला लिया. वर्ष 2008 के मुंबई हमले की साजिश में मददगार बना. इस समय शिकागो की जेल में 35 साल की सजा भुगत रहा हेडली पहला विदेशी आतंकवादी है, जिसकी भारत की किसी अदालत में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये गवाही हुई.
गवाही में हेडली ने मुंबई हमले की पूरी साजिश बयां कर पाकिस्तान को फिर से बेनकाब किया, तो यह बता कर भारत का राजनीतिक तापमान भी बढ़ा दिया कि अहमदाबाद में वर्ष 2004 में पुलिस मुठभेड़ में मारी गयी मुंबई की कॉलेज छात्रा इशरत जहां असल में लश्कर-ए-तैयबा की सहयोगी थी.
इशरत का एनकाउंटर फर्जी था या सही, यह कोर्ट को तय करना है, लेकिन देश की राजनीति 12 साल से इशरत जहां को एक राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करती रही है. इसी कड़ी में हेडली के खुलासे के बाद राजनीतिक बयानबाजियों का सिलसिला फिर से शुरू हो गया है.
हेडली के बयान को आधार बना कर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने निशाना साधा है कि ‘इशरत को बेटी बतानेवाले अब कहां गये?’ दरअसल, मानवाधिकारों की बहाली के लिए सक्रिय संगठनों ने इशरत की मौत पर सवाल उठाते हुए पुलिस मुठभेड़ को फर्जी बताया था और तब के राजनीतिक शोर-गुल में कांग्रेस सहित कुछ पार्टियों ने कमोबेश यही लाइन ली थी. हालांकि, इशरत की मौत से जुड़ा पूरा मामला कितना पेचीदा था, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसमें सीबीआइ और आइबी की जांच अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुंची.
सीबीआइ ने 2013 की अपनी चार्जशीट में इशरत को बेगुनाह मानते हुए उसे मुंबई के कॉलेज की छात्रा माना, तो आइबी ने सवाल उठाया कि मुंबई की कॉलेज छात्रा हथियारों के साथ अहमदाबाद क्यों पहुंची? तब की यूपीए सरकार भी इस मामले पर एकमत नहीं थी. तत्कालीन गृह मंत्री पी चिंदबरम ने इशरत मामले को फर्जी मुठभेड़ से नहीं जोड़ा और आगे जांच की बात कही, लेकिन कांग्रेस के ही कुछ बयानवीर नेताओं को उनकी बात पर यकीन नहीं था. ऐसे में हेडली के ताजा खुलासे से कांग्रेस निश्चित ही पसोपेश में है.
हालांकि, देश की हालिया दशकों की राजनीति पर गौर करें, तो इशरत जहां प्रकरण कोई पहला मामला नहीं है, जब कांग्रेस सहित कुछ दलों के वरिष्ठ नेताओं ने ठोस सबूतों के बिना गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी की.
वह चाहे कंधार में आतंकियों को छोड़े जाने का मामला हो या बाटला हाउस प्रकरण, वह चाहे कोर्ट के आदेश पर अफजल गुरु को फांसी देने का मामला हो या फिर ओसामा बिन लादेन से जुड़े बयान. हाल के दशकों में ऐसे अनेक मौके आये हैं, जब कुछ वरिष्ठ राजनेता अपने राजनीतिक हितों को सर्वोपरि मान कर, सिर्फ वोट बैंक को तुष्ट करने के मकसद से आधारहीन बयानबाजी करते दिखे हैं. ऐसी तुच्छ राजनीतिक बयानबाजियों और आरोप-प्रत्यारोपों के कारण आतंकवाद जैसे अत्यंत गंभीर मसले पर भी देश कई बार दो हिस्सों में बंटा दिखता है. ऐसी स्थिति राष्ट्रीय एकता, अखंडता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए निश्चित रूप से खतरनाक है. इससे सामाजिक सौहार्द और अमन-चैन के वातावरण पर खतरा पैदा होता है, तो हिंसक और उग्रवादी गतिविधियों को पनपने का मौका मिलता है. वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती ऐसी राजनीति ने देश में कई गंभीर समस्याओं को बढ़ाया है, तो पड़ोसी मुल्क अपनी नापाक करतूतों के लिए ऐसे माहौल का फायदा उठाने की फिराक में रहता है.
कहना गलत नहीं होगा कि अपने वोट बैंक को तुष्ट करने के मकसद से कुछ दलों की ओर से समय-समय पर की जानेवाली तुच्छ राजनीति ने देश में दक्षिणपंथी ताकतों को फलने-फूलने के लिए खाद-पानी भी मुहैया कराया है और वह लगातार मजबूत हुई हैं. इस माहौल के बरक्स कुछ दशक पीछे के राजनीतिक परिदृश्य को याद करें जेपी, लोहिया और आचार्य नरेंद्रदेव जैसे कई नाम जेहन में उभरते हैं, जिन्होंने विपक्ष में रह कर भी देश हित को अपने दलगत हितों से हमेशा ऊपर रखा है.
यदि हेडली सही है, तो यह कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दलों और उनके बयानवीरों के लिए सबक है कि देश की एकता-अखंडता से जुड़नेवाले संवेदनशील मुद्दों पर ठोस सबूतों के बिना अधपकी बातें कहने से बचें. ऐसे मुद्दों पर सिर्फ दलगत हितों को ध्यान में रख कर राजनीतिक रोटियां सेंकने से राष्ट्रहित को हानि पहुंचना तय है.