महान रहस्योद्घाटन का साक्षी यह समय

क्या यह ब्रह्मांड, जिसकी सीमा हमारी बुद्धि के दायरे में नहीं समा सकती, एक सुसंयोजित रचना ही है, न कि दुर्घटनाओं की एक शृंखला, जैसी अनीश्वरवादियों की मान्यता रही है? क्या इस पृथ्वी की समय सीमाओं से परे भी कोई अस्तित्व है? एक खोज के रूप में विज्ञान सामान्यतः मुझे उलझन भरा ही लगा है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 15, 2016 5:04 AM

क्या यह ब्रह्मांड, जिसकी सीमा हमारी बुद्धि के दायरे में नहीं समा सकती, एक सुसंयोजित रचना ही है, न कि दुर्घटनाओं की एक शृंखला, जैसी अनीश्वरवादियों की मान्यता रही है? क्या इस पृथ्वी की समय सीमाओं से परे भी कोई अस्तित्व है?

एक खोज के रूप में विज्ञान सामान्यतः मुझे उलझन भरा ही लगा है. स्कूल में जहां भौतिकशास्त्र एक शून्य सरीखा लगता था, रसायनशास्त्र तभी रुचि जगा पाता, जब प्रयोगों के लिए उसके दीप जला करते थे. अलबत्ता, अपने तर्कों तथा मान्यताओं के साथ गणित कुछ ज्यादा स्वागतयोग्य लगता, हालांकि एक काल्पनिक शून्य पर आधारित किसी भी चीज को एक फलसफा ही माना जा सकता है. मगर इस सप्ताह, होटल के कमरे में एकदम सुबह जब न्यूज चैनल खोला, तो तब विज्ञान सहसा भूत, वर्तमान और न जाने कितने सारे भविष्यों के मिश्रण से एक रोमांचकारी आयाम में तब्दील हो उठा, जब मैंने अरबों प्रकाश वर्षों की दूरी पर दो ब्लैक होल्स के टकराने से पैदा अतींद्रिय, अलौकिक ध्वनि सुनी. इसके साथ ही, उस यूनानी गणितज्ञ पाइथागोरस का आइंस्टीन से बौद्धिक स्तर पर मिलन हो गया, जिसने यह परिकल्पना की थी कि सभी ब्रह्मांडीय पिंड एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बना कर गतिशील रहते हैं और प्रत्येक की एक अपनी ध्वनि होती है, जिसे हम सुन नहीं सकते. उन पिंडों के संगीत की इस अवधारणा ने सदियों से कवियों को अपने सम्मोहक आकर्षणपाश में बांधे रखा है.

अभी-अभी मैंने जिस खोज की खबर सुनी, उसने अत्यंत प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों से परे मेरे जैसे एक सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क के लिए अस्तित्व, समय और आकाश के सारतत्व को एक नयी अर्थवत्ता दे दी. जीवन समय के व्यतीत होने से बढ़ कर और कुछ भी नहीं, जो सहसा एक शून्य में समाप्त हो जाता है. उसके बाद क्या होता है, यह सिर्फ एक पहेली ही तो है, जिसका उत्तर आस्था और मतों की निश्चितता में निहित है, मानवीय बौद्धिक उपक्रम में नहीं. किंतु इसी उपक्रम ने अब यह सिद्ध कर दिया कि ब्रह्मांड में गुरुत्वाकर्षण के अलावा ध्वनियों का भी वजूद है. दूसरे शब्दों में, मानवीय अनुभव के तत्व दूसरी दुनियाओं में भी मौजूद हैं. ध्वनि अब मानवीय इन्द्रियों के व्यापार का ही एक हिस्सा नहीं रही, बल्कि इसका एक शाश्वत अस्तित्व भी सिद्ध हुआ. मैं ‘लिगो’ के संक्षिप्त नाम से जाने जा रहे इस स्तब्धकारी प्रयोगस्थल में लगे वैज्ञानिकों में एक, प्रोफेसर सबोल्क मार्का के शब्दों को ही दोहराना चाहूंगा, जिन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूं कि यह एक लंबे वक्त के लिए भौतिकशास्त्र की एक अत्यंत प्रमुख खोज बनी रहेगी. खगोलशास्त्र में बाकी सब कुछ सिर्फ आंख की तरह रहा है. अंततः, अब इसने कान भी पा लिये हैं. इसके पहले कभी हमारे कान न थे.’

जरा इस गहरे फर्क के विषय में सोचिए. मानवीय दृष्टि उसकी क्षमता तक की दूरी तय कर सकती है. किंतु, ध्वनि वहां से आती है, जहां वह पैदा होती है और यह दूरी अरबों प्रकाशवर्षों की भी हो सकती है. आंख व्यक्तिनिष्ठ है, जबकि कान वस्तुनिष्ठ है. हम एक बार फिर ज्ञान की वर्तमान सीमाओं से परे एक निर्णायक लंबी छलांग लगाने के कगार पर पहुंचे प्रतीत होते हैं. इस खोज ने जो विश्वव्यापी उत्साह पैदा किया है, उसकी एक निश्चित वजह तो यह है कि इससे जितने उत्तर मिलेंगे, उससे कहीं अधिक प्रश्न पैदा होंगे. पाइथागोरस और आइंस्टीन के बीच प्रश्नों के दो हजार सालों का फासला है, जबकि आइंस्टीन और उनके सिद्धांत की इस सिद्धि के बीच सौ वर्षों के अथक प्रयोगों की दूरी है.

क्या यह ब्रह्मांड, जिसकी सीमा हमारी बुद्धि के दायरे में नहीं समा सकती, एक सुसंयोजित रचना ही है, न कि दुर्घटनाओं की एक शृंखला, जैसी अनीश्वरवादियों की मान्यता रही है? क्या इस पृथ्वी की समय सीमाओं से परे भी कोई अस्तित्व है? समय के प्रवाह में उलटी दिशा की यात्रा से जुड़ी संभावना ने हमेशा से मानवीय कल्पना को उड़ान दी है. जब आइंस्टीन अपने सिद्धांतों को आकार देने में जुटे थे, तभी एचजी वेल्स अपनी पुस्तक ‘टाइम मशीन’ के लेखन में लगे थे. भारतीय दर्शन ने हमेशा ही समय को एक भ्रम के रूप में खारिज किया है, जो पुनर्जन्म में आस्था की एक आवश्यक शर्त है. ‘लिगो’ वैज्ञानिकों ने समय की विकृतियां तथा अस्थिरता तो दर्ज कर ली है, मगर समय के उससे ज्यादा आयाम हैं, जितने हमारे मस्तिष्क में आ सकते हैं. अब इसके बाद क्या?

क्या यहां ज्योतिष का प्रसंग उत्कृष्ट से निम्न पर उतरने जैसा होगा? ज्योतिष को विज्ञान जैसा विन्यास अथवा अनुशासन हासिल नहीं है, मगर हमारे विश्वासों पर इसकी पकड़ एक सामूहिक असुरक्षा से आगे कुछ और का सबूत है. मीडिया में प्रकाशित होनेवाला रोजाना अथवा साप्ताहिक भविष्यकथन तो प्रकटतः बेमतलब ही होता है, किंतु कुंडली पर विभिन्न संस्कृतियों की एक जैसी जमी श्रद्धा किसी ऐसी पृष्ठभूमि की ओर संकेत करती है, जो कहीं गुम हो चुकी है. मुझे उत्तरों का पता तो नहीं, पर प्रश्नों की जानकारी जरूर है. (अनुवाद: विजय नंदन)

एमजे अकबर

राज्यसभा सांसद, भाजपा

delhi@prabhatkhabar.in

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