दमन की बजाय छात्रों को सुने सरकार
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया महात्मा गांधी ने अक्तूबर, 1931 में डॉ भीमराव आंबेडकर के बारे में कहा था कि ‘उन्हें क्षुब्ध होने का पूरा अधिकार है. उन्होंने हमारे सिरों को न फोड़ कर आत्मसंयम का परिचय दिया है.’ कहने का तात्पर्य है कि उनके और उनके समुदाय के खिलाफ हुए अत्याचारों की […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
महात्मा गांधी ने अक्तूबर, 1931 में डॉ भीमराव आंबेडकर के बारे में कहा था कि ‘उन्हें क्षुब्ध होने का पूरा अधिकार है. उन्होंने हमारे सिरों को न फोड़ कर आत्मसंयम का परिचय दिया है.’ कहने का तात्पर्य है कि उनके और उनके समुदाय के खिलाफ हुए अत्याचारों की पृष्ठभूमि को देखते हुए डॉ आंबेडकर को कड़े शब्दों के प्रयोग का अधिकार था.
मुझे इस प्रकरण की याद तब आयी जब देश के एक और उच्च शिक्षण संस्थान में छात्रों के विरोध पर सत्ताधारी पार्टी क्रोधित हो गयी है. दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के खिलाफ पुलिस ने अफजल गुरु की फांसी के विरोध से जुड़े एक कार्यक्रम के मामले में राजद्रोह का मुकदमा दायर किया है. राजद्रोह ‘कथन, लेखन या गतिविधियों के द्वारा सरकार की अवज्ञा के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने का अपराध है.’
इस प्रकरण में प्राथमिकी पूर्वी दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी के सांसद महेश गिरी द्वारा दर्ज करायी गयी, जिन्होंने अपनी लिखित शिकायत में छात्रों को ‘संविधान-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी तत्व’ बताया है. महेश गिरी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को भी पत्र लिख कर मांग की है कि ‘दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि ऐसी शर्मनाक और भारत-विरोधी गतिविधियां दुबारा न हों.’
यह हैदराबाद यूनिवर्सिटी में हुई घटना का ही दोहराव जैसा है, जहां याकूब मेमन की फांसी का विरोध कर रहे छात्रों के खिलाफ भाजपा ने कड़ी कार्रवाई की थी.
उस मामले की परिणति एक छात्र की आत्महत्या की त्रासदी के रूप में हुई. जेएनयू प्रशासन ने कहा है कि उसने उक्त कार्यक्रम की मंजूरी नहीं दी थी और इस मामले की जांच के लिए एक समिति का गठन किया है, लेकिन फिर से प्रतिनिधित्व की समस्या सामने आ गयी है. छात्र संघ का कहना है कि इस जांच समिति में वंचित समुदायों का कोई सदस्य शामिल नहीं है.
इस मामले में भाजपा के पास विकल्प था. छात्रों पर आरोप लगाने के बजाये उसे मुद्दे को गंभीरता और संयम से समझने की कोशिश करनी चाहिए थी, जो कि सीधे तौर पर जाति से जुड़ा हुआ था. हैदराबाद में दलित छात्र याकूब मेमन की फांसी का विरोध आखिर क्यों कर रहे थे? जेएनयू में मुसलिमों पर ऐसा ध्यान क्यों है? क्यों छात्र वंचित समुदायों के प्रतिनिधित्व की बात करते हैं, जब जांच के लिए कोई समिति बनायी जाती है?
तथ्य यह है कि भारत में ज्यादातर फांसी दलितों और मुसलिमों को ही दी गयी है. राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन ने बताया है कि मौत की सभी सजाओं में 75 फीसदी तथा आतंक के लिए दी गयी मौत की सजाओं में 93.5 फीसदी दलितों और मुसलिमों को दी गयी हैं.
यहां पर जो मुद्दा प्रमुख रूप से उभरता है, वह है पूर्वाग्रह का. जब कोई उच्च जाति का हिंदू आरोपी आतंकवादी घटना को अंजाम देता है, तो सरकार उसके खिलाफ कठोर कार्रवाई करते हुए दिखाई नहीं पड़ती. मालेगांव में हुए बम-धमाकों के मामले में इसे देखा जा सकता है.
और बेअंत सिंह के हत्यारे को फांसी देने की कोई जल्दी नहीं है, राजीव गांधी के हत्यारों को दी गयी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया है. ये सभी आतंकवाद के दोषी पाये गये थे, लेकिन सबके ऊपर एक-समान कानून लागू क्यों नहीं होते? मायाबेन कोडनानी जैसे लोगों की बात ही छोड़ दें, जो 95 गुजरातियों की हत्या की दोषी है और जेल में भी नहीं है.
दूसरा मुद्दा आर्थिक है. दलित और मुसलिम ‘गरीब’ के पर्याय हैं. निचली अदालत में बचाव के लिए अफजल गुरु को लगभग न के बराबर कानूनी प्रतिनिधित्व मिला था. सच को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दलित और मुसलिम और इनके समर्थक सरकार का विरोध कर रहे हैं.
उन्हें ऐसा करने का अधिकार भी है और उनकी नाराजगी के समुचित कारण हैं. उन्हें अनियंत्रित और असंतुलित बताया जा रहा है, लेकिन वे तथ्यों के आधार पर बहस कर रहे हैं. दूसरी ओर, इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए स्मृति ईरानी को पत्र लिखनेवाले भाजपा के सांसद भावना के आधार पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
हम जैसे ऊंची जातियों के लोग इस बात पर जोर देते रहते हैं कि सभी भारतीयों को इस भ्रम में जीना चाहिए कि हम एक पूर्ण समाज हैं, जिसके सामने सभी को नतमस्तक होना चाहिए. हिंदुत्व का आधार मध्यवर्ग और ऊंची जातियां है. इसे आरक्षण के विचार से घृणा है, क्योंकि उसे लगता है कि उसके विशेषाधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है. यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी आरक्षण को पसंद नहीं करता है तथा चुनावों के दौरान उनके बयानों ने भाजपा को मुश्किल में डाल दिया था.
प्रधानमंत्री इसकी प्रतिक्रिया में विपक्ष पर तोड़-मरोड़ कर झूठा प्रचार करने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन, वास्तविक तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट हैं.
दलित आवाज उठा रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए खड़े हो रहे हैं. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. और अगर वे असंयमित भाषा का प्रयोग करते हैं तो उनके साथ अपराधियों की तरह व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए. यह महत्वपूर्ण है कि सरकार उनके साथ बातचीत करे और न सिर्फ उनके नारों को, बल्कि उनके तर्कों को भी गंभीरता से सुने.
लेख के शुरू में उद्धृत गांधी की बुद्धिमत्ता की तुलना पहले हैदराबाद के और अब दिल्ली के छात्रों के विरोध में हिंदुत्व के नेताओं की बिना सोचे-विचारे की गयी हरकतों से करें. इन मुद्दों पर हमें परिपक्व समझ दिखानी चाहिए.
जब तक सरकार ऐसा करने की कोशिश नहीं करती है, तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हम इतनी क्रूरता से निरंतर जिनका दमन कर रहे हैं, वे वैसी बातें कहेंगे, लिखेंगे और करेंगे, जो लोगों को सरकार की अवज्ञा के लिए प्रोत्साहित करती हैं.