कर्ज पर दोहरा रुख

बरसों पहले एक भोजपुरी गीत लोगों की जुबान पर होता था- ‘हमनी के भगवान हो गईलें दू गो- अमीरन के दोसर, गरीबन के दोसर ’. सरकारी बैंकों की डूबती पूंजी और बढ़ते कर्ज पर सरकारी रुख के बारे में भी यह पंक्ति दोहरायी जा सकती है. इससे जुड़ी शिकायत वाजिब है, क्योंकि जैसे कभी भगवान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 18, 2016 1:39 AM
बरसों पहले एक भोजपुरी गीत लोगों की जुबान पर होता था- ‘हमनी के भगवान हो गईलें दू गो- अमीरन के दोसर, गरीबन के दोसर ’. सरकारी बैंकों की डूबती पूंजी और बढ़ते कर्ज पर सरकारी रुख के बारे में भी यह पंक्ति दोहरायी जा सकती है. इससे जुड़ी शिकायत वाजिब है, क्योंकि जैसे कभी भगवान को समदर्शी मान कर सबके साथ समान भाव से न्याय की उम्मीद की जाती थी, वैसी ही उम्मीद लोकतांत्रिक समय में जनता की चुनी हुई सरकार से भी की जाती है.
लोकतंत्र के भीतर आर्थिक न्याय का तकाजा है कि कर्ज की वसूली में सरकार अमीर और गरीब के बीच भेद न करे, क्योंकि सरकारी बैंकों को अपनी वित्त-व्यवस्था दुरुस्त रखने के लिए सरकार जिस राजकोष से हजारों करोड़ रुपये की सहायता देती रही है वह जनता-जनार्दन के खून-पसीने की कमाई का ही एक हिस्सा होता है. जाहिर है, जनता को यह पूछने और जवाब पाने का हक बनता है कि वह धन जिम्मेवारी के साथ खर्च हो रहा है या नहीं. लेकिन, वित्तीय जवाबदेही के मोर्चे पर सरकारी तंत्र ने दोहरा रुख अपना रखा है.
तभी तो जब यह समाचार आया कि सरकारी बैंकों ने अप्रैल 2012 से मार्च 2015 के बीच 1.14 लाख करोड़ रुपये के कर्जों को बट्टे खाते में डाल दिये हैं, तब रिजर्व बैंक ने यह कह कर कन्नी काटी कि उधारी चुकता नहीं करनेवालों के नाम उसके पास नहीं हैं और वित्त मंत्रालय ने कुछ बोलना ठीक नहीं समझा. यह रकम इससे पहले के नौ सालों के बैड लोन से ज्यादा है और इनमें से 55.5 हजार करोड़ तो अकेले मार्च 2015 में खत्म हुए वित्त वर्ष में राइटऑफ किये गये.
इस पर सरकारी तंत्र की चुप्पी को तोड़ने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक से कहा है कि पिछले पांच वर्षों में 500 करोड़ रुपये से ज्यादा के डूबे कर्ज के प्रत्येक मामले में पूरा ब्योरा पेश करे. बैड लोन पर मौजूदा चुप्पी की तुलना कुछ साल पहले की स्थिति से की जा सकती है, जब यूपीए सरकार ने किसानों को दिये 70 हजार करोड़ के कर्ज माफ किये थे. कर्ज के बोझ से दब कर आत्महत्या पर मजबूर किसानों की ऋण माफी पर अर्थशास्त्रियों और कॉरपोरेट घरानों के पैरोकारों ने खूब शोर मचाया था और सरकार ने बैंकों को इसकी भरपाई की थी.
आज स्थिति उलट है, जब सरकारी-तंत्र डिफॉल्टरों के नाम तक का खुलासा नहीं करना चाहती. बड़े कारोबारी कर्ज न चुका कर भी मौज करें और छोटे किसान कर्ज अदायगी के नाम पर सब कुछ गंवा कर आत्महत्या करने पर मजबूर हों, इंसाफ के इस दोहरे मानदंड को जारी रखने की जगह, सरकार को चाहिए कि वह इससे जुड़ी शंकाओं का समाधान करे.

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