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जेएनयू मामला : कहां खत्म होती है आजादी की लकीर?

प्रमोद जोशी,वरिष्ठ पत्रकार ‘भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी.’ ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह!’ क्या ऐसे नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहे जाएंगे? और क्या इन्हें लगानेवालों को गोली मार देनी चाहिए, जैसा कि भाजपा विधायक ओपी शर्मा ने कहा है? क्या इनके आधार पर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ […]

प्रमोद जोशी,वरिष्ठ पत्रकार
‘भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी.’ ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह!’ क्या ऐसे नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहे जाएंगे? और क्या इन्हें लगानेवालों को गोली मार देनी चाहिए, जैसा कि भाजपा विधायक ओपी शर्मा ने कहा है? क्या इनके आधार पर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ देशद्रोह की धाराएं लगाना न्यायसंगत है?
क्या इस घटना मात्र से हम जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित संस्थान को देशद्रोही घोषित कर दें? सवाल कई और भी हैं. कन्हैया ने नारे लगाये भी या नहीं? नहीं लगाये, तब भी क्या वे इस माहौल के जिम्मेवार नहीं हैं? नारे लगानेवालों के खिलाफ वे क्यों नहीं बोले? जिन वीडियो के आधार पर हम अपनी राय दे रहे हैं, वे क्या सही हैं? इस तकनीकी दौर में फर्जी वीडियो भी बनाये भी जा सकते हैं. इन वीडियो की फोरेंसिक जांच होनी चाहिए.
इतना तो सच है कि किसी ने नारे लगाये, जिन्हें देश ने सुना. लेकिन, जेएनयू प्रसंग में कई मामले गड्ड-मड्ड हो गये हैं. सच यह भी है कि 2014 के आम चुनाव के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में अचानक जहर घुल रहा है. फिलहाल, इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ को छोड़ कर हमें देश-विरोधी नारों और उससे जुड़े कार्यक्रमों पर ध्यान देना चाहिए और किसी एक राजनीतिक पार्टी या विचारधारा के नजरिये से सोचने के बजाय भारतीय नजरिये से सोचना चाहिए.
पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी के अनुसार, राष्ट्रविरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं है. उन्होंने कहा कि जेएनयू में लगे कुछ नारों से समस्या जरूर हो सकती है, लेकिन सिर्फ इस आधार पर कि जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार उस वक्त वहां मौजूद थे, उनके खिलाफ देशद्रोह का केस नहीं बनता. भारतीय अदालतें कई बार यह कह चुकी हैं कि नारे लगाना या बगावत के लिए उकसाना तब तक देशद्रोह नहीं है, जब तक कि वास्तव में हिंसा भड़काई न जाये. हालांकि पूछा जा सकता है कि पटाखे में जब तक आग न लगे, क्या वह पटाखा नहीं है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए और 120-बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस चली आ रही है. 124-ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है. इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो, तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है. भारतीय दंड संहिता में इस कानून को अंगरेजी सरकार ने भारतीय विद्रोह से निपटने के लिए शामिल किया था.
हालांकि, लॉर्ड मैकॉले ने इस कानून को मूल संहिता में रखा था, पर 1860 में इसे लागू करते समय इसमें शामिल नहीं किया गया.
लेकिन, कुछ समय बाद ही इसे 124-ए के रूप में शामिल कर लिया गया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और बाद में भी इसे खत्म करने की मांग होती रही, पर खत्म नहीं किया गया. साल 1951 में जवाहरलाल नेहरू ने संसद में इस कानून को अनुचित बताया, पर इसे खत्म करने की पहल नहीं की. सुप्रीम कोर्ट ने भी इनके दुरुपयोग को खारिज किया, पर इसे खारिज नहीं किया. इसका मतलब है कि हमारी व्यवस्था अभी इन कानूनों की जरूरत को महसूस करती है. दूसरी ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है.
इस दौर में जब आतंकवाद को लेकर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में वैश्विक संधि की बात की जा रही है, तब हिंसा समर्थक नारों पर हम ठंडे क्यों हैं? हम लोकतांत्रिक मूल्यों को महत्वपूर्ण मानते हैं.
पर राष्ट्रवाद के लिए हमें भगवा और प्रगतिशीलता के लिए लाल रंग में रंगने की जरूरत नहीं है. हाल में देश में आइएसआइएस की गतिविधियों से जुड़े कुछ व्यक्तियों की धर-पकड़ हुई है. क्यों हुई? क्या उन्होंने हथियार उठा लिये थे? नहीं, पर वे उस तरफ बढ़ रहे थे. हिंसक प्रवृत्ति के प्रति हमदर्दी देख कर भी खामोश नहीं रहा जा सकता. देशद्रोह, आतंकवाद, प्रत्यक्ष हिंसा, परोक्ष हिंसा जैसे तमाम मामले एक-दूसरे से जुड़े हैं. भारत आतंकवाद-पीड़ित देश है. नक्सली, कश्मीरी, खालिस्तानी और पूर्वोत्तर के राज्यों की अलगाववादी हिंसा को हम आतंकवाद के दायरे में रखते हैं. दूसरी ओर ऐसे लोग हैं, जो इन्हें राजनीतिक आंदोलन मानते हैं.
आप किसे सच मानेंगे? किस प्रकार की राजनीति को मर्यादित मानेंगे? क्या ऐसे नारे चीन या रूस में लगाये जा सकते हैं? या उस पाकिस्तान में, जिसको जिंदाबाद कहा जा रहा था? वहां के बलूच कश्मीर जैसा ही आंदोलन चला रहे हैं. क्या हम उनका साथ देंगे? हम अपनी तुलना उदार पश्चिमी देशों से करते हैं. बावजूद इसके कि वामपंथी राजनीति का पहला निशाना यही देश हैं.
वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में कार्रवाई के दौरान अमेरिका में सरकार-विरोधी रैलियां निकलतीं रहीं. अमेरिका की प्रतिरोधी राजनीति और आतंकवादी विचारधारा के बीच महीन फर्क है. लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क के विश्वविद्यालयों के साथ जेएनयू का कितना साम्य है, यह भी विचार का विषय है. भारत के पूर्व और पश्चिम में दूर-दूर तक ऐसा कौन सा देश है, जिसका लोकतंत्र हमसे ज्यादा उदार है? पर भारत परिपक्व लोकतंत्र नहीं है, उस दिशा में कदम बढ़ा रहा है. उसके हर कदम की समीक्षा भी होनी चाहिए.
पिछले साल सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम 2008 की धारा 66ए को लेकर लंबे समय तक विवाद चला. अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह धारा तो खत्म हो गयी, पर इसे लेकर विमर्श खत्म नहीं हुआ. एक तरह से यह बहस अब फिर शुरू होगी. धारा 66ए के खत्म होने का मतलब यह नहीं था कि किसी को कुछ भी बोलने या लिख देने का लाइसेंस मिल गया. उससे पहले 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की देशद्रोह के तहत हुई गिरफ्तारी ने सारे देश का ध्यान खींचा था.
साल 2011 में तमिलनाडु के कुडनकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे 6000 लोगों के खिलाफ एक ही थाने में देशद्रोह के आरोप लगा दिये गये. यह भी ऐतिहासिक था.
जेएनयू के घटनाक्रम पर कोई राय बनाने के पहले कुछ बातें स्पष्ट होनी चाहिए.पहली यह कि नारेबाजी के पीछे क्या करने की योजना थी? प्रेस क्लब में भी नारेबाजी हुई. क्या दोनों के पीछे एक ही तरह के लोग थे?
इनका उद्देश्य क्या था? अफजल गुरु और याकूब मेमन की फांसी को लेकर राष्ट्रीय मीडिया में पहले भी टिप्पणियां हुई हैं. उनके पीछे मूल उद्देश्य न्याय-भावना को रेखांकित करना था. पर भारत के टुकड़े करने की कामना न्याय-भावना नहीं, बल्कि किसी साजिश का हिस्सा लगती है. सवाल यह भी है कि यह बगावत थी या घटिया राजनीति?

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