अब बिलंब केहि कारण कीजै!
।। अनंत विजय ।। डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर, आइबीएन 7 आदर्श स्थिति तो यह होती कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन जजों की जांच समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखायी दी थी, तभी उन्हें उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वह कानून सम्मत तरीके से काम करे. गोस्वामी […]
।। अनंत विजय ।।
डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर, आइबीएन 7
आदर्श स्थिति तो यह होती कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन जजों की जांच समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखायी दी थी, तभी उन्हें उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वह कानून सम्मत तरीके से काम करे.
गोस्वामी तुलसी दास जी रामचरित मानस में एक जगह कहते हैं-साखामृग कै बड़ी मनुसाई, साखा ते साखा पर जाई. मतलब कि बंदर का बस यही पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है.
इस वक्त देश में कानून की हालत भी कुछ उसी साखामृग जैसी हो गयी लगती है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एके गांगुली पर लगे यौन शोषण के आरोपों में कानून और उसका पालन करवानेवाले भी एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने में ही अपना पुरुषार्थ समझ रहे हैं. ममता बनर्जी ने गांगुली को बंगाल मानवाधिकार आयोग से हटाने की मांग को लेकर राष्ट्रपति को खत लिखा. राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार को भेज दिया और अब गृह मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से राय मांगी है.
पीड़ित इंटर्न का हलफनामा सामने आने के बाद मामले की गंभीरता और बढ़ गयी है. आरोपों के बाद जस्टिस गांगुली ने सफाई दी थी कि पीड़िता उनकी बच्ची की तरह है. उनकी सफाई और इंटर्न के हलफनामे में दर्ज उसकी आपबीती को मिला दें, तो जस्टिस गांगुली का अपराध और बढ़ जाता है.
इतना कुछ होने के बाद भी जस्टिस गांगुली पर अब तक केस दर्ज कर कार्रवाई नहीं करना उससे भी बड़ा अपराध है. दरअसल इस पूरे मामले में अंगरेजी की कहावत- यू शो मी द फेस, आइ विल शो यू द लॉ, सही प्रतीत हो रही है. ऐसा लगता है कि बड़े और ताकतवर लोगों के लिए कानून की परिभाषा व उसके निहितार्थ बदल कर उसकी व्याख्या की जा रही है. ‘कानून अपनी तरह से काम करेगा’ के जुमले सुनने में आ रहे हैं. पुलिस भी किसी कार्रवाई से हिचक रही है.
इस केस की जांच और कार्रवाई शुरू से ही धीमी गति से चल रही है. जस्टिस एके गांगुली का नाम लिये बगैर जब एक लड़की ने अपने साथ हुए वाकये को एक ब्लॉग के जरिये सार्वजनिक किया, तो देश में हडकंप मच गया. धीरे ही सही लेकिन मीडिया ने इस मुद्दे को उठाये रखा. मामले के चर्चित होते ही सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जांच के लिए तीन जजों की समिति बना दी.
सवाल यह उठता है कि यह समिति किस कानून और किस आधार पर बनायी गयी है? भारत के पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल विकास सिंह ने तो इस समिति को गैरकानूनी करार दिया है.
यह समिति जब इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच करने लगी, तो पुलिस को इसकी आड़ मिल गयी और उसने जांच शुरू नहीं की. तर्क यह दिया गया कि जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस मामले को देख रहे हैं, तो पुलिस को इंतजार करना चाहिए. लिहाजा कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ. हालांकि पीड़िता ने लिख कर अपने साथ हुए पूरे वाकये का विवरण दिया था.
बाद में जांच समिति के सामने हलफनामा भी दिया, जो अब सामने है. समिति ने पीड़िता के बयान भी दर्ज किये. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सताशिवम ने माना कि रिटायर्ड जस्टिस एके गांगुली पर प्रथम दृष्टया गलत यौन व्यवहार का मामला है. उसी बयान में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि यह मामला जिस वक्त का है उस वक्त न तो जस्टिस एके गांगुली सुप्रीम कोर्ट में थे और न ही वह इंटर्न सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही थी.
लिहाजा कोर्ट इस इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है. कोर्ट अगर कार्रवाई नहीं कर सकता और अगर प्रथम दृष्टया केस बनता है, तो रजिस्ट्रार जनरल को केस दर्ज करवाने का आदेश तो दिया जा सकता था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी साफ आदेश नहीं दिया, न ही जस्टिस गांगुली के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी दी.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चौतरफा सवाल खड़े होने लगे. कानून मंत्री कपिल सिब्बल और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जांच समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखायी दी थी, तभी उन्हें उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वह कानूनसम्मत तरीके से काम करे.
ऐसा नहीं हुआ, तो जस्टिस गांगुली के हौसले को बल मिला और उन्होंने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. अब सबसे बड़ी चुनौती जांच एजेंसियों की है. सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित आदेश नहीं मिलने के बाद पीड़िता के साथ-साथ महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवालों का भरोसा भी अब पुलिस पर ही है.
इस मामले में प्रधानमंत्री को दखल देकर राष्ट्रपति से जस्टिस गांगुली को बरखास्त करने की सिफारिश करनी चाहिए और पुलिस को केस दर्ज कर जस्टिस गांगुली से पूछताछ करनी चाहिए, क्योंकि पीड़िता का हलफनामा सार्वजनिक होने के बाद विलंब की कोई वजह बच नहीं जाती है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो चेहरा देख कर कानून की बात और उसकी व्याख्या का मुहावरा सही साबित होगा.