आचार्य नरेंद्रदेव मरणोपरांत बेघर!
कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार आज भारतीय समाजवाद के पितामह और मार्क्सवादी आचार्य नरेंद्रदेव की साठवीं पुण्यतिथि है. 1956 में 19 फरवरी को समाजवादी समाज व व्यवस्था की स्थापना के अपने अहर्निश प्रयत्नों की सफलता के प्रति गहरे तक आश्वस्त रहे आचार्य अचानक हमारे बीच से चले गये थे. अफसोस कि इस देश ने भले […]
कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
आज भारतीय समाजवाद के पितामह और मार्क्सवादी आचार्य नरेंद्रदेव की साठवीं पुण्यतिथि है. 1956 में 19 फरवरी को समाजवादी समाज व व्यवस्था की स्थापना के अपने अहर्निश प्रयत्नों की सफलता के प्रति गहरे तक आश्वस्त रहे आचार्य अचानक हमारे बीच से चले गये थे.
अफसोस कि इस देश ने भले ही स्वतंत्र होने के बाद समाजवादी गणराज्य बनने के संवैधानिक संकल्प के साथ अपनी यात्रा शुरू की, आचार्य के जाने के बाद के साठ सालों को उनके अविस्मरणीय योगदान के विस्मरण के वर्ष बनने से नहीं रोक सका. इस कारण उनकी यादों के साथ लगातार होते आ रहे आपराधिक छल अभी भी कोई सीमा मानने को तैयार नहीं हैं. यही कारण है कि उनकी कर्मभूमि फैजाबाद में स्थित उनके ऐतिहासिक घर को एक बड़ी डील के बाद ‘कोहीनूर पैलेस’ में बदल दिया गया है. उनके निधन के बाद लोग उसे ‘आचार्य जी की कोठी’ ही जानते थे. अब उसके भविष्य को लेकर समाजवादी खेमे निराशा जता रहे हैं कि जब आचार्य का समाजवाद ही वक्त के थपेड़े नहीं झेल पा रहा, तो किसी तरह लड़-भिड़ कर उनका घर बचा भी लिया जाये, तो उससे क्या हासिल होगा?
आचार्य के इस घर का ही नहीं, उनके जीवन, यहां तक कि नाम का भी, ऐसे बदलावों से गुजरने का इतिहास है. उनका माता-पिता का दिया नाम अविनाशीलाल था, जिसे नामकरण संस्कार के वक्त नरेंद्रदेव में बदल दिया गया. बाद में काशी विद्यापीठ में उनके अभिन्न रहे स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता व साहित्यकार श्रीप्रकाश ने उन्हंे आचार्य कहना शुरू किया, तो वह आगे चल कर उनके व्यक्तित्व का पर्याय ही नहीं, नरेंद्रदेव का स्थानापन्न भी बन गया.
31 अक्तूबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में पैदा हुए आचार्य दो साल बाद पिता के साथ फैजाबाद चले आये. आचार्य ने इलाहाबाद विवि से कानून की डिग्री हासिल की और 1915 से पांच वर्षों तक फैजाबाद में वकालत भी की. 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ, तो उन्होंने वकालत छोड़ दी.
पहले लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में उनके क्रिया-कलापों को गति प्रदान करने में लगे, फिर पंडित नेहरू और शिवप्रसाद गुप्त के बुलावे पर काशी विद्यापीठ चले गये. समय के साथ देश ने उनमें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पाली, प्राकृत, बंगला, जर्मन, फ्रेंच और अंगरेजी समेत कई विदेशी व भारतीय भाषाओं, दर्शनों, शास्त्रों व संस्कृतियों व इतिहास के ज्ञाता व व्याख्याकार और कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का रूप भी देखा.
20 अगस्त, 1944 को इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो दर्पपूर्वक खुद को मार्क्सवादी कहनेवाले समाजवादी आचार्य ने जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर उनके शिशु का नाम राजीव गांधी रखा.
महात्मा गांधी से स्नेहसिक्त संबंधों के बावजूद वे ‘गांधीवादी’ नहीं बने और कहा करते थे कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं, लेकिन मार्क्सवाद नहीं. उनका मार्क्सवाद किसी पार्टीलाइन पर नहीं चलता था. वे भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक उसके समन्वयात्मक स्वरूप के हिमायती थे. यही कारण है कि वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने. सर्वहारा के नाम पर किसी व्यक्ति या गुट की तानाशाही उन्हें स्वीकार नहीं थी.