ऐ मेरे दिल कहीं और चल

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार बंदे को कुत्तों से जन्मजात एलर्जी रही है, लेकिन कुत्ता पालकों से नहीं. मगर इसके बावजूद विडंबना यह रही कि कुत्तों को लेकर उठे बवाल में वह कई बार बेवजह फंसा. मुद्दे हमेशा कॉमन रहे हैं. आपके कुत्ते ने मेरे टिंगू को काट लिया. खबरदार, उसे कुत्ता कहा, उसका नाम चीकू […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 22, 2016 6:28 AM

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

बंदे को कुत्तों से जन्मजात एलर्जी रही है, लेकिन कुत्ता पालकों से नहीं. मगर इसके बावजूद विडंबना यह रही कि कुत्तों को लेकर उठे बवाल में वह कई बार बेवजह फंसा. मुद्दे हमेशा कॉमन रहे हैं. आपके कुत्ते ने मेरे टिंगू को काट लिया. खबरदार, उसे कुत्ता कहा, उसका नाम चीकू है. कुत्ता पालने की तमीज सीखो. तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा सफेद क्यों? कई बार बात बढ़ते-बढ़ते मारपीट और थाना-कचेहरी तक पहुंची. इनसान-इनसान का दुश्मन बन गया. लेकिन कुत्तों को फर्क नहीं पड़ा. दुम हिला-हिला कर वैलेंटाइन के इशारे करते रहे.

उस दिन बंदा फिर फंस गया. हुआ यूं कि एक कुत्ता टहलाऊ को सामने से आता देख कर उनके मित्र को मजाक सूझा- अरे भई, सुबह-सुबह ये गधे को कहां टहला रहे हो? कुत्ता टहलाऊ सख्त नाराज हुए- अजीब अहमक किस्म के शख्स हैं आप. आंखें हैं या बटन? आपको ये गधा दिखाई देता है? यह हमारा कुत्ता झंडू है.

मित्र माफी मांग कर इतनी जल्दी फाइल बंद करनेवालों में नहीं थे, बोले- अरे भई, मैं आपसे नहीं आपके झंडू से मुखातिब हूं. बस फिर क्या था. मल्लयुद्ध की स्थिति आ गयी. यकीनन, मजाक बड़ा भद्दा था. वह भी सुबह-सुबह. राम, राम! कोई भी होता बिगड़ जाता. अब वे दोनों ही बंदे के आजू-बाजू वाले ठहरे और अच्छे मित्र भी. दुख-सुख में हमेशा साथ रहे. मध्यस्था तो करनी ही थी. समझाया-बुझाया. चार लोग और जमा हो गये. बिना कुत्ते वाले ने कुत्ते वाले से माफी मांगी. सीज फायर हो गया.

लेकिन, दोनों के मुंह फूले रहे. शीतयुद्ध की स्थिति. जिस्म मिले, मगर दिल नहीं. कुत्ते वाले मित्र के मन में कसक रह गयी कि अगले ने बेमन से माफी मांगी है. रह-रह कर टीस उठती.

न चाय हुई, न पानी. इधर, बिना कुत्ते वाला भी खिन्न. झंडू को कुत्ता पकड़ू ट्राली में बैठा देखूं, तो चैन आये. बात दोनों की पत्नियों तक पहुंच गयी. एक नया फ्रंट खुल गया. जब-तब गोलाबारी. सीज फायर का आये दिन उल्लंघन.

तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका के दृष्टिगत और एक आदर्श व जिम्मेवार नागरिक होने के नाते बंदे ने पहल की. दोनों पड़ोसियों को सपत्नीक चाय पर बुलाया. मोहल्ला सुधार समिति के प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी सहित दर्जन भर और गणमान्य भी आये. शांति के लिए पहले से तैयार की गयी जबरदस्त इमोशनल अपील की. बाकी लोगों ने भी स्पीचें झाड़ीं. शीतयुद्ध की बर्फ पिघली.

दोनों पड़ोसियों के आंसू टपके. गले मिले. सारे गिले-शिकवे जाते रहे.

चाय-पानी, समोसा, जलेबी, पेस्ट्री, सेब, केला आदि पर बंदे के ढाई हजार रुपये खर्च हो गये. इधर, मेमसाब ने एक सांस में कई प्रश्न उठा दिये- ये सब करने की क्या जरूरत थी? झगड़ा करें वे और वे भी मरे झंडू के नाम पर. हमारी रिश्तेदारी है उनसे क्या? पता नहीं क्यों हरदम मुझे ही देख कर भौंकता है ये मरा झंडू.

उसी शाम खुले घूम रहे झंडू ने मेमसाब को काट लिया. पांच हजार के इंजेक्शन लगे. एक नया विवाद. मोहल्ला दो भागों में बंट गया. कुत्ता पालक संघ और दूसरा कुत्ता खदेड़ो संघ के पक्ष में. अब उदास बंदा कहीं और जाकर बसने की जुगाड़ में है…

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