विकास और उसकी प्रक्रिया

व्यालोक स्वतंत्र टिप्पणीकार हर मुहल्ले में ऐसे एकाध चचा होते ही हैं, जिनका इस निखिल ब्रह्मांड के हर विषय पर ज्ञान होता है और न केवल ज्ञान होता है, बल्कि वे उसे बांचने के लिए भी हमेशा तत्पर-तैयार रहते हैं. नुक्कड़ के पान की दुकान पर भेंट हुई. नमस्ते-बंदगी के बाद चचा को नयी खबर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 23, 2016 1:05 AM

व्यालोक

स्वतंत्र टिप्पणीकार

हर मुहल्ले में ऐसे एकाध चचा होते ही हैं, जिनका इस निखिल ब्रह्मांड के हर विषय पर ज्ञान होता है और न केवल ज्ञान होता है, बल्कि वे उसे बांचने के लिए भी हमेशा तत्पर-तैयार रहते हैं. नुक्कड़ के पान की दुकान पर भेंट हुई. नमस्ते-बंदगी के बाद चचा को नयी खबर टिका दी, ‘चचा, समझे कि नहीं? 251 रुपये में स्मार्टफोन, मेक इन इंडिया के तहत. है न कमाल’?

चचा मुसकुराये, पान को घुलाया और बोले, ‘हां भई, कमाल तो है ही. अब देखो न, मेक इन इंडिया में दुनिया भर का आबा-काबा बटोरे रहे, पूरी दुनिया के सामने जश्न होना था और तभी मंच पर ही आग लग गयी.’

बचाव करते हुए बंदे ने कहा, चचा ये सब छोटी-मोटी चीजें तो होती ही रहती हैं, लेकिन विकास तो होगा न इससे, उसकी बात कीजिए.

पीक की लंबी पिचकारी छोड़ी चचा ने. होठों के कोने पर चू आयी पीक को कंधे पर टिके गमछे से पोंछा और बोले, ‘हां, विकास की तो सही बोले. वैसे तुमको एक दृष्टांत दूं. अपने देश में विकास किस तरह होता है?’ मेरे जवाब की प्रतीक्षा किये बैगर चचा बोले, ‘देखो, अपने शहर में नालों की सफाई तो तुमने देखी ही होगी.

उसका पैटर्न क्या होता है? पहले दो-चार मजदूर आकर नाले की उड़ाही करते हैं. चूंकि रोजाना सफाई होती नहीं, तो नाले में गाद तो जमा खूब होती है. मजदूर बेचारे उसे निकाल कर नाले की बगल में ही जमा करते हैं. उसके बाद वह जमता जाता है, सूखता रहता है. सड़क पर आती-जाती गाड़ियाें के चक्के उस पर चढ़ते रहते हैं, बहुत सारा माल चक्कों में लग कर फिर सड़क में ही मिल भी जाता है.’

चचा की गहन समीक्षा हमारी समझ में तो आनी थी नहीं, तो हमने भी भकुआए हुए मुंह से पूछ ही लिया, ‘माने’? चचा ने कुछ ऐसे अंदाज से हमारी तरफ देखा, मानो ‘क्वांटम फिजिक्स’ का कोई सूत्र खोल रहे हों. बोले, ‘अरे भई, इस तरह से समझ लो कि सड़क हो गयी सरकार और नाले से निकला गाद-कचरा हो गया फंड. तो नाले की सफाई होने के बाद सारा कूड़ा फिर से सड़क में ही मिल गया न… सूख-सूख कर. उसी तरह फंड भी… समझ गये?’

मैंने जब फिर नकार में सिर हिलाया, तो चचा ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘अच्छा, चलो. विकास का एक और फॉर्मूला तुमको बताते हैं. कभी शेयरिंग वाले ऑटो में बैठे हो. जब तक ऑटो में दो-तीन सवारी न हो जाये, ड्राइवर दूर-दूर तक नजर भी नहीं आयेगा. फिर, काफी देर बाद जब उन्हीं में से कोई सवारी उकता कर कुछ कहेगी, तो ड्राइवर आकर ऑटो को स्टार्ट कर देगा.

स्टार्ट करने के 15-20 मिनट बाद भी वह चलायेगा नहीं. तब तक पांच की क्षमता वाले ऑटो में वह छह लोगों को बिठा चुका होगा. इसके बाद जब सवारियां शिकायत करेंगी या उतरने की धमकी देंगी, तो वह ऑटो को आगे-पीछे करना शुरू करेगा.

सवारियां खुश कि ऑटो बस अब चला कि तब चला. ड्राइवर भी खुश, क्योंकि वह जानता है कि ऑटो अगले आधे घंटे और कहीं नहीं जायेगा और ट्रैफिक-पुलिस भी खुश, क्योंकि उसका मीटर तो लगातार चल ही रहा है. त बाउ, यैह छइ अपना ओतक विकास.’ अंतिम पंक्ति चचा ने मैथिली में कही, ताकि खासा जोर पड़ सके.

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