उत्तर प्रदेश की त्रिकोणात्मक तसवीर

प्रो आशुतोष मिश्र अध्यक्ष, राजनीतिशास्त्र विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश में शायद ही कभी चुनाव से पहले का साल इससे अधिक नीरस रहा हो. पिछले दो विधानसभा-चुनावों में जबरदस्त सरकार-विरोधी लहर चली थी, जिस वजह से पूर्ण बहुमत की नयी सरकारें बनीं. इसके पहले नब्बे के पूरे दशक में मंडल, कमंडल और दलित उभार की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 23, 2016 1:11 AM
प्रो आशुतोष मिश्र
अध्यक्ष, राजनीतिशास्त्र विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय
उत्तर प्रदेश में शायद ही कभी चुनाव से पहले का साल इससे अधिक नीरस रहा हो. पिछले दो विधानसभा-चुनावों में जबरदस्त सरकार-विरोधी लहर चली थी, जिस वजह से पूर्ण बहुमत की नयी सरकारें बनीं. इसके पहले नब्बे के पूरे दशक में मंडल, कमंडल और दलित उभार की तीन सुपर-सुनामियों ने चुनावों को उत्तेजना में भर दिया था. इस लिहाज से देखें, तो इसे अखिलेश सरकार की बड़ी सफलता माना जा सकता है.
चुनाव-शास्त्री एकमत हैं कि नीरस चुनावी माहौल से सरकारी पार्टी की सफलता का संकेत मिलता है. नीरस माहौल का निहितार्थ यह है कि एंटी-इन्कम्बेंसी भावना कमजोर है. सरकार-विरोधी भावना की कमजोरी आश्चर्यजनक है, क्योंकि यह सरकार भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और परिवारवाद जैसी किसी भी दुष्प्रवृत्ति के मामले में पिछली किसी भी सरकार से पीछे नहीं रही है.
अखिलेश सरकार अपने विरुद्ध जनाक्रोश पर लगाम लगाने में सफल रही है. मुख्यमंत्री ने अखिलेश ‘भइया’ वाली छवि बना ली है. उनके काम करने का अंदाज अनौपचारिक है. नोएडा के गरीब बच्चे और पुलिसिया जुल्म के शिकार लखनऊ के बुजुर्ग टाइपिस्ट जैसे कुछ मामलों में सहायता करके उनके प्रचार-तंत्र ने मुख्यमंत्री की मानवीय संवेदनशीलता का महिमा-मंडन किया. इस बीच सभी सरकारी नियुक्तियों में एक क्षेत्र-विशेष और जाति-विशेष का एकाधिकार बनाने के लिए सभी चयन संस्थाओं में धांधली का रिकाॅर्ड तोड़ा जाता रहा.
लोकायुक्त के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सरकार की फजीहत हुई. सभी शीर्ष चयन-संस्थाओं के लगभग सभी अधिकारियों को उच्च न्यायालय ने अपमानित करके बाहर धकेल दिया. बंुदेलखंड सूखे से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश दंगों से बरबाद होता रहा, लेकिन उसी के पास सैफई में सत्ताधारी यादव-परिवार बाॅलीवुड की रंगरेलियों में डूबा रहा. मोहनलालगंज और फैजाबाद जैसी जगहों पर दसियों बार निर्भया कांड दुहराया गया. अपराध के शिकार गरीबों और मृत पुलिसकर्मियों के मुआवजे को भी मजहब के मानदंड पर तय किया गया.
उत्तर प्रदेश के चयन आयोगों की काली करतूतों के विरुद्ध इलाहाबाद जैसे प्रतियोगिता के केंद्रों में छात्रों ने ऐतिहासिक आंदोलन किये और उन्होंने लगभग सभी मामलों में सरकार की धांधलियों को न्यायालय से निरस्त भी करा दिया. इसके बावजूद विपक्षी दल खामोश रहे.
मुलायम सिंह ने नरसिम्हा राव के समय से यह नीति बना रखी है कि केंद्र की सरकार को अप्रत्यक्ष समर्थन दो और उसके बदले सीबीआइ से अपनी सुरक्षा तथा केंद्र की सरकारी पार्टी का उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त किया जाये. इसी नीति के कारण मुलायम सिंह ने बिहार में भाजपा के लिए लालू-नीतीश के महागंठबंधन से किनारा कर लिया.
मुलायम ने मोदी सरकार को केंद्र में आपातकाल में खुला समर्थन देने का भरोसा दे रखा है. मुलायम के इस उपकार के बदले भाजपा के आलाकमान ने उत्तर प्रदेश की भाजपा को समाजवादी पार्टी के हाथों गिरवी रख दिया है. सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश की कांग्रेस का भी एक बड़ा वर्ग मुलायम के लिए बहुत ही अधिक मुलायम है. लोकायुक्त के मामले में साफ दिखा कि बसपा का शीर्ष नेतृत्व भी मुलायममय है!
उत्तर प्रदेश में भाजपा की समस्या यह है कि अब तक मुलायमपरस्ती में मशगूल रहने के बावजूद वह अचानक कैसे अपने को सच्चा विपक्षी दल सिद्ध करके चुनाव में समाजवादी पार्टी को हरा सकती है. चुनावी जंग जीतने चली भाजपा के सभी हथियारों में जंग लगी है. प्रदेशों के विधानसभा चुनावों के जीतने का पुराना मोदी फाॅर्मूला दिल्ली और बिहार में पिट चुका है.
अब मोदी स्वयं नहीं चाहेंगे कि उनके नाम पर चुनाव लड़ा जाये. भाजपा की चुनावी कमान संभालने के लिए राजस्थान के राज्यपाल का मन मचल रहा है, लेकिन उनकी उम्र उनके रास्ते का रोड़ा है. दो बार पार्टी छोड़नेवाले ‘बाबूजी’ को भाजपा का निष्ठावान नेता सिद्ध कर पाना भी कठिन है. राजनाथ सिंह भी केंद्र सरकार की नंबर दो की कुर्सी छोड़ कर लखनऊ नहीं आना चाहेंगे. भाजपा की बड़ी समस्या यह भी है कि उसके संगठन और सिद्धांतों की सारी शुचिता समाप्त हो चुकी है.
उसने पहले भी डीजी यादव और बाबूसिंह कुशवाहा तक को पार्टी में शामिल करने में संकोच नहीं किया. फिर इस लोकसभा चुनाव में भाजपा आलाकमान ने मोदी लहर की आड़ में दलबदलुओं की एक बड़ी फौज को माननीय सांसदों में कई तो ऐसे हैं, जो हर चुनाव के पहले आदतन दल बदलते रहते हैं और चुनाव के कुछ दिन पहले ही भाजपा में आये थे. दलबदलुओं को एकमुश्त पुरस्कृत करने की परंपरा को और अधिक परिष्कृत करते हुए भाजपा नेतृत्व ने इस बार विधान परिषद चुनावों में कई दलबदलुओं को सदस्यता की रसीद के साथ ही टिकट दे दिया.
इनमें से कई प्रत्याशियों ने टिकट पाते ही नामांकन वापस लेकर भाजपा नेतृत्व को चुल्लू भर पानी में ही डुबा डाला. भाजपा की समस्या यह है कि उसके समर्थकों में शिक्षित-शहरी-सवर्णों की संख्या अधिक है, जो भाजपा के सपोर्टर भले ही हों, लेकिन भाजपा का वोटर बनने के लिए भाजपा से कुछ आदर्शों की आशा करते हैं.
लोकसभा चुनाव में ‘हाथी’ ने भले ही ‘अंडा’ दिया हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में सपा को हराने की शक्ति बसपा में ही है. प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में केवल चार प्रतिशत वोटों के अंतर से सीटों की संख्या में 400 प्रतिशत का अंतर हो जाता है. बसपा का जनाधार बड़ा है और उसका वोट पाने के लिए बसपा को कोई प्रयास भी नहीं करना है.
चूंकि बसपा का वंचित वर्ग का वोटर हाथी के निशान को देख कर किसी भी अन्य वर्ग के बसपा उम्मीदवार को वोट देता है, इसलिए बसपा को किसी अन्य वर्ग को बसपा में शामिल करके टिकट देने और उसे जिताने में समस्या नहीं है. बसपा ने सबसे पहले मुसलिमों को, फिर कुर्मियों को और फिर ब्राह्मणों को गंठबंधन में शामिल किया था. परेशानी यह है कि इस बार अभी तक बसपा नये वर्ग को शामिल करने के मामले में निष्क्रिय है. गंठबंधन को मजबूत करने के लिए समय चाहिए, इसलिए बसपा गंठबंधन का पूरा लाभ लेने में पिछड़ती जा रही है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हैसियत चिल्लर पार्टी जैसी है. कम जनसंख्या वाली जातियों की पसंगा पार्टियों के लिए अभी भी उत्तर प्रदेश इस मामले में केरल या तमिलनाडु तो दूर, बिहार के भी करीब नहीं है.
इनमें से कुछ दल राजद-जदयू-रालोद के साथ मिल कर चुनाव में हाथ आजमायेंगे. इत्तिहाद कौंसिल, पीस पार्टी और ओवैसी की एमआइएम जैसे दल मुसलिम मतों पर दावा करेंगे, लेकिन मुसलिम मतदाता इन दलों को वोटकटवा मान कर दरकिनार करेंगे. कुल मिला कर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों की त्रिकोणात्मक तसवीर ही उभरती दिख रही है.

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