बजट में अंत्योदय पर हो ध्यान
विभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बजट के मौसम में बात क्यों न एक वाकये से शुरू करें. दिसंबर महीने के अंत में कड़ाके की ठंड सही नहीं जा रही थी. जेब से हाथ बाहर निकालना भी मुश्किल था. लेकिन मुझे उस गांव में जाना ही था. सोच कर ही तन-मन सिहर उठता था. […]
विभाष
कृषि एवं आर्थिक
मामलों के विशेषज्ञ
बजट के मौसम में बात क्यों न एक वाकये से शुरू करें. दिसंबर महीने के अंत में कड़ाके की ठंड सही नहीं जा रही थी. जेब से हाथ बाहर निकालना भी मुश्किल था. लेकिन मुझे उस गांव में जाना ही था. सोच कर ही तन-मन सिहर उठता था. उसका लोन एप्लिकेशन बहुत दिनों से मेरे पास पेंडिंग पड़ा था. ब्लॉक से भी लगातार पूछताछ हो रही थी.
उन्हें भी दिखाना था कि लोन पास हो गया है और मुझे भी महीने की रिपोर्टिंग में इसको पेंडिंग नहीं दिखाना था. आवेदन आइआरडीपी के अंतर्गत था. एक बार सोचा कि ऐसे ही मंजूरी दे दूं, बिना गांव गये. बकरी खरीदने के लिए कुल पांच हजार रुपये का आवेदन किया गया था.
यह काम पूरा कर लूं तब जाऊंगा, इस खातेदार को निपटा लूं तब जाऊंगा करते-करते देर दोपहरी के चार बज गये. एक बार फिर मन हुआ कि न जायें. गांव भी कोई पास में तो था नहीं. पूरे तीस किलोमीटर. कस्बे में एक थर्मल पॉवर प्लांट है. प्लांट के उपयोग के लिए एक बांध भी था.
गांव बांध को पार कर घने जंगलों में से होकर जाना पड़ता था. मैंने उस दिन काम को निपटाने का पक्का मन बना लिया था. मैंने एक बिना बांह का स्वेटर पहन रखा था. ऊपर से एक कोट डाला. मफलर लपेटा, हाथों को ठंड से बचाने के लिए दास्ताने पहने और मोटर साइकिल स्टार्ट कर चल दिया. अकेला न रहूं और रास्ता न भूलूं, इसलिए मैंने अपने साथ एक और सहकर्मी को ले लिया.
बांध पार कर जंगल में घुस गया. ठंड से बुरा हाल हो रहा था. जंगल की पगडंडियों पर चलते, गांव का रास्ता पूछते पहुंच गया गांव में. गांव में घुस कर उसका पता पूछा. गांव मैदानी इलाके के गांवों की तरह तो था नहीं. काफी मशक्कत के बाद मैं उसकी झोपड़ी के दरवाजे पर था. मैंने उसे देखा तो समझ न पाया कि माजरा क्या है. वह बस एक तहमद लपेटे हुए था. जिस खाट पर बैठा था, उस पर कुछ भी नहीं बिछा था. बगल में एक अलाव जल रहा था. आश्चर्य हुआ कि जंगल विभाग के चलते अलाव कैसे जल रहा है. मैंने पूछा क्यों भई, इतनी ठंड में ऐसे क्यों!
उसने जो बोला, मुझे अपना कोट लगा टनों भारी है, मफलर जैसे गले में फांस की तरह लगने लगा और मेरा दम घुटने लगा. मैंने सरपट वापस मोटर साइकिल दौड़ाया. किसी तरह हांफते-हांफते घर पहुंच कर मैंने कोट उतार कर फेंका और पसीना सुखाने के लिए बैठ गया. तब ज्ञान हुआ था गांधी जी ने प्रयाग में अपना वस्त्र क्यों त्याग दिया था. मैं आज तक नहीं त्याग पाया. अभी भी जाड़े में कोट, स्वेटर और मफलर निकालना ही पड़ जाता है.
उसने कहा था, उसके पास बस इतना ही वस्त्र है और अलाव की गरमी से ही जाड़ा गुजारता है.उन्हीं जंगलों में मुझे गुजरते हुए एक दिन शाम हो गयी, रास्ता भूल गया, तो गुहार लगाने पर कोई भी आदमी दरवाजा खोलने को तैयार नहीं था कि कहीं जंगल विभाग का कोई आदमी न हो. किसी तरह से एक दरवाजा खुला और मुझे सही रास्ता मालूम हुआ.
गांव-जंगलों की दुर्दशा की यह छोटी सी तस्वीर है. समस्या विकट है. तभी तो खेती, किसान संकट में है.
प्रति हेक्टेयर उपज लगातार दयनीय बनी हुई है. खेती नौजवानों को आकर्षित नहीं कर पा रही है, और किसान बस खेती किये जा रहा है संकट को अपने कंधे पर लादे. खेती की कई समस्याओं में से एक है कुछ क्षेत्रों में लगातार सूखा पड़ना या बाढ़ आना. कुछ इलाकों, उत्तर प्रदेश और बिहार के तराई इलाकों, में एक ही मौसम में बाढ़ और सूखा दोनों आना. बुंदेलखंड इलाके में कम बारिश की समस्या लगातार बनी हुई है.
ऐसे कई और इलाके हैं देश में. बहस जारी रहती है, लेकिन हो कुछ नहीं पाता. इन इलाकों की जरूरत है कि भूमि एवं जल प्रबंध दुरुस्त हों. बारिश की बूंदें जहां गिरती हैं, उनको वहीं जमा कर उपयोग करना बड़ी जरूरत है. ऐसा पानी बहते हुए अपने साथ मिट्टी काटते हुए कहर ढाता है. हर साल पेड़ जोर-शोर से लगाये जाते हैं, लेकिन दिखाई कहीं नहीं देता है.
जिन इलाकों में नकदी फसलें जैसे गन्ना, कपास आदि बोये जाते हैं, वहां के किसानों की समस्या और भी विकट है. उनका कैश फ्लो तब तक बना रहता है, जब तक फसल की उपज बनी रहती है. जब खेती का समय न हो तब वैकल्पिक रोजगार किसानों और खास कर इन इलाकों के लोगों की सबसे बड़ी जरूरत है, जिससे कैश फ्लो लगातार बना रहे. इसके लिए गांवों में कुटीर और लघु उद्योग के अवसर उपलब्ध कराने होंगे.
कृषि की एक अन्य समस्या है- रिसर्च का लाभ गांवों तक न पहुंच पाना. कृषि विद्यालय और विश्वविद्यालय तो बहुत हैं, शोध भी होते हैं, लेकिन उनके शोध शायद शोध पेपर तक ही सीमित रह जाते हों. कृषि में जोखिम प्रबंध सुधारने का काम इन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को ही करना पड़ेगा. इसके लिए कोई नीति अगर होगी भी, तो क्रियान्वयन कहीं दिखाई नहीं पड़ता.
बजट अब आने ही वाला है. विकास के आखिरी छोर पर बैठे गांव-जंगल के लोग बाट जोह रहे हैं कि अंत्योदय उसके पास तक पहुंचे. तत्काल एक समन्वित और समग्र कृषि नीति की जरूरत है, जो किसानों की समस्याओं को पूरी व्यापकता से देखे और समाधान दे. इसी प्रकार वित्तीय समावेशन के क्रियान्वयन में अभी भी कई अड़चनें हैं. वित्तीय समावेशन की बड़ी जरूरतों में से एक है मोबाइल कनेक्टिविटी, जिससे माइक्रो एटीएम निर्बाध रूप से चले.
मोबाइल कनेक्टिविटी शहरों में ही नाकाफी है, तो गांवों के क्या कहने! इसे सुधारने के लिए भी बजट में जगह होनी चाहिए. कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था गति नहीं पकड़ पा रही है. लेकिन, यह भी सच है कि जो इस मुश्किल समय में भी अर्थव्यवस्था चला रहे हैं, किसान, छोटे व्यवसायी उनकी बैंकिंग जजरूरतों को पूरा करना अभी भी संभव नहीं हो पा रहा है.
गांव-जंगल-माइक्रो एवं लघु उद्यमियों की वित्तीय जरूरतों को प्रभावी तरीके से पूरा करने की सुदृढ़ नीति की जरूरत है. अगर अर्थव्यवस्था को नौ प्रतिशत से बढ़ना है, तो कृषि में जीडीपी विकास दर कम-से-कम चार प्रतिशत होनी चाहिए. जब सब ठप्प पड़ा है, तो शुरुआत कृषि और हाशिये पर पड़े लोगों से क्यों न करें. प्रयास विफल नहीं होगा.