जिंदा रहे स्त्री अधिकार की मुहिम
दामिनी बलात्कार कांड को एक वर्ष पूरा हो चुका है. इस बीच ‘दामिनी’ सिर्फ एक लड़की न रह कर हमारी चेतना का प्रतीक बन चुकी है. लेकिन, यह कहना मुनासिब न होगा कि उस वारदात के बाद से समाज पूरी तरह बदल गया. ‘दामिनी’ के दर्द से खुद को जोड़ कर हजारों युवा सड़कों पर […]
दामिनी बलात्कार कांड को एक वर्ष पूरा हो चुका है. इस बीच ‘दामिनी’ सिर्फ एक लड़की न रह कर हमारी चेतना का प्रतीक बन चुकी है. लेकिन, यह कहना मुनासिब न होगा कि उस वारदात के बाद से समाज पूरी तरह बदल गया. ‘दामिनी’ के दर्द से खुद को जोड़ कर हजारों युवा सड़कों पर निकले. इन्हीं में से कुछ लोग लैंगिक असमानता के सांचे में ढली वही पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता रखते थे, जो कहीं न कहीं आगे चल कर यौन हिंसा का रूप अख्तियार कर लेती है.
पुरुष वर्चस्व यानी पुरुषों का खुद को महिलाओं से श्रेष्ठ समझना और उन पर अपना वर्चस्व बनाये रखना. यानी घर की चहारदीवारी से महिलाएं निकलेंगी या नहीं, निकलेंगी तो सड़क पर क्या पहन कर चलेंगी, यह सब वो खुद नहीं, बल्कि पुरुष तय करेंगे. कभी पिता के रूप में, कभी पति, कभी भाई तो कभी प्रेमी के रूप में. जाहिर है कि सुरक्षा और आजादी के बीच बारीक लकीर होती है.
पुरुष वर्चस्ववादी कैद से निकलने की लड़ाई के बीच समाज को सुरक्षा के पहलू पर भी ध्यान रखना होगा. पिछले एक साल के दौरान कम से कम शहरी मध्यमवर्गी समाज में इतना तो हुआ ही है कि इन सब विषयों पर चर्चा छिड़ी है. प्रभावशाली क्षेत्र से जुड़ी शख्सीयतों को भी अपनी जाग्रत होती चेतना के जरिये समाज ने कटघरे में खड़ा किया. कड़े कानून तो बने, लेकिन उनके क्रि यान्वयन में कड़ाई से काम किया जा रहा है या ढिलाई से, इस पर कुछ कहने के लिए इंतजार करना होगा. सरकार महिला बैंकों, महिला थानों के जरिये अपनी पीठ थपथपा सकती है, लेकिन ये कवायदें महज खानापूर्ति है. जरूरत है स्त्री-पुरुष के बीच अविश्वास और संवादहीनता की खाई पाटने की, जिससे समान अधिकार वाला समाज बन सके.
अंकित मुत्रीजा, ई-मेल से