भारतीय रेलों में की जानेवाली यात्रा पर कटाक्ष करते हुए बहुत पहले साहित्यकार शरद जोशी ने रेल-यात्रा शीर्षक निबंध में लिखा था कि ‘भारतीय रेलों का काम तो कर्म करना है. फल की चिंता वह नहीं करती. रेलों का काम एक जगह से दूसरी जगह जाना है. यात्री की जो भी दशा हो- जिंदा रहे या मुर्दा, भारतीय रेलों का काम उसे पहुंचा देना भर है. अरे, जिसे जाना है वह तो जायेगा. बर्थ पर लेट कर जायेगा, पैर पसार कर जायेगा. जिसमें मनोबल है, आत्मबल, शारीरिक बल और दूसरे किसिम के बल हैं, उसे यात्रा करने से कोई नहीं रोक सकता. वे जो शराफत और अनिर्णय के मारे होते हैं, वे क्यू में खड़े रहते हैं, वेटिंग लिस्ट में पड़े रहते हैं.
ट्रेन स्टार्ट हो जाती है और वे अपना सामान लिए दरवाजे के पास खड़े रहते हैं. भारतीय रेलें हमें जीवन जीना सिखाती हैं. जो चढ़ गया उसकी जगह, जो बैठ गया उसकी सीट, जो लेट गया उसकी बर्थ. भारतीय रेलें तो साफ कहती हैं- जिसमें दम, उसके हम. आत्मबल चाहिए, मित्रो!’ शरद जोशी का देहावसान 1991 में हुआ. इस लिहाज से जोशी जी की ये व्यंग्यात्मक पंक्तियां उदारीकरण के दौर के पहले के भारत की रेलयात्रा के बारे में हैं.
उदारीकरण के दो दशक बीत जाने के बाद अपेक्षा की जानी चाहिए कि यात्रियों के लिहाज से भारतीय रेल की यह दशा बेहतरी की दिशा में बदली होगी. खुशी इस बात की है कि हाल के सालों में रेल बजट के भीतर रेलयात्रा की बदहाली को मंत्रालय के स्तर पर स्वीकार करने का चलन बढ़ा है और अफसोस इस बात का है कि इस स्वीकार के बावजूद हालात इतने नहीं बदले कि रेलयात्री गर्व से यह मान सकें कि उनकी यात्रा ‘सुखद, सफल और मंगलमय’ होगी ही, जैसा कि अमूमन जंक्शन के स्टेशनों पर उद्घोषणाओं में कामना की जाती है. रेलमंत्री का इस साल का बजट खुशी और अफसोस की इस जारी स्थिति में बदलाव के खास उपाय करता नहीं प्रतीत होता.
किसी भी श्रेणी के किराये में इजाफा नहीं किया गया है. पहली नजर में यह रेल बजट का सबसे चमकदार पक्ष जान पड़ता है. लेकिन, तथ्य यह है कि रेलयात्रियों की जेब पर सुविधा, श्रेणी, टिकट के आरक्षण या फिर उसके कैंसिलेशन के नाम पर पहले ही बोझ लाद दिया गया है. तर्क दिया जा सकता है कि बाद हमेशा रेलयात्रा को सुविधाजनक और सस्ता बनाने की क्यों हो, रेलवे को होनेवाले घाटे की क्यों न हो. यह बात ठीक है कि भारतीय रेलवे को फिलहाल यात्री-सुविधाओं के मद में 22 हजार करोड़ का घाटा उठाना पड़ रहा है और अगर बीते एक दशक में सालाना 5-6 प्रतिशत की दर से भी किराया भाड़ा बढ़ाया गया होता तो रेलवे को 1.3 लाख करोड़ रुपये यानी 19 अरब डॉलर की आमदनी होती, लेकिन तब भी यह सवाल बना रहेगा कि क्या भारतीय रेलवे इस आय से रेल यात्रा को ‘सुखद सफल और मंगलमय’ बनाने की दिशा में अग्रसर हो पाती?
दरअसल, भारतीय रेल की दशा जिस आमूल बदलाव की मांग करती है, उसकी तैयारी नीति के स्तर पर ही नहीं है. मिसाल के लिए पिछले साल के ही उदाहरण को याद करें. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले बजट में रेलवे को 40 हजार करोड़ रुपये देने का वादा किया था, लेकिन रेलवे में इस रकम को खर्च करने की रफ्तार इतनी धीमी रही कि वित्तमंत्री को इस राशि में 20 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ी. प्रधानमंत्री ने रेलवे को पांच साल के भीतर आधुनिक रूप देने के लिए 137 अरब डॉलर की एक योजना की शुरुआत की थी, लेकिन यात्रियों के किराये और माल-ढुलाई से हासिल रेलवे के राजस्व में इतनी बढ़ोत्तरी न हो पायी कि यह योजना अपेक्षित रफ्तार पकड़ पाती. असल मुश्किल यही है.
यात्रियों की अपेक्षाओं और अर्थव्यवस्था की जरूरतों के अनुरूप रेलवे में हर स्तर पर निवेश की जरूरत है, मगर रेलवे का राजस्व इसकी अनुमति नहीं देता. ऐसे में नये रेल बजट में नयी रेलगाड़ियों को चलाने, चल रही ट्रेन की औसत रफ्तार बढ़ाने, ज्यादा रफ्तार की नयी ट्रेन चलाने या ट्रेन के गंतव्य तक पहुंचने में लेटलतीफी को दूर करने की घोषणाओं पर शक होना लाजिमी है.
यात्रियों के मन में चलते रहता है कि एक एमएमएस पर ट्रेन साफ हो, उन्हें मनपसंद भोजन मिले और जरूरत के वक्त डाॅक्टर या सिपाही हाजिर हो जायें, आरक्षण की सुविधा इतनी आसान हो कि नाम वेटिंग लिस्ट में जाने का डर ना सताये. रेलमंत्री ने इस दिशा में निश्चित ही पहल की है, लेकिन असल सवाल तो पूरे रेल ढांचे में बदलाव का है. पूर्व रेलमंत्री लालू यादव ने अपने एक ट्वीट में ठीक याद दिलाया था कि रेलवे वह बीमार गाय हो गयी है, सरकार न दूध निकाल पा रही है, न ही सेवा कर पा रही है. रेलमंत्री से अपेक्षा इस कठिन स्थिति से रेलवे को उबारने की है.