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निशाने पर जेएनयू क्यों!

जब मैं जेएनयू का शोध-छात्र था, संकीर्ण और कुंठित किस्म के लोगों का एक खेमा तब भी जेएनयू के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार करता था. तब जेएनयू के छात्रों को पाकिस्तान या हाफिज सईद से नहीं, रूस या चीन से जोड़ा जाता था. तब उन्हें आतंकी नहीं, शराबी-चरसी या नक्सली कहा जाता था. हमारे शहरी-कस्बाई समाज […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 26, 2016 1:04 AM

जब मैं जेएनयू का शोध-छात्र था, संकीर्ण और कुंठित किस्म के लोगों का एक खेमा तब भी जेएनयू के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार करता था. तब जेएनयू के छात्रों को पाकिस्तान या हाफिज सईद से नहीं, रूस या चीन से जोड़ा जाता था. तब उन्हें आतंकी नहीं, शराबी-चरसी या नक्सली कहा जाता था.

हमारे शहरी-कस्बाई समाज में बहसबाजी का खास महत्व है. इन बहसों में सुनी-सुनाई बातों, यहां तक कि अफवाहों को भी अनेक लोग तथ्य की तरह पेश करते हैं. शायद, इसीलिए हम बहसबाजी और भाषणबाजी में तो आगे हैं, पर आविष्कारों में सबसे पीछे! मैं जिस पार्क में सुबह की सैर के लिए जाता हूं, वहां जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के तीन-चार दिनों बाद ‘दो विशेषज्ञ’ मुझसे टकरा गये. दोनों ने नमस्कार किया और पूछने लगे, ‘आप तो पत्रकार हैं, ये बताइए कि सरकार जेएनयू को बंद क्यों नहीं कराती, वहां खुलेआम पाकिस्तान-समर्थन और कश्मीर-आजादी के नारे लग रहे हैं, हाफिज सईद जेएनयू वालों को पैसे भेज रहा है, वहां के ज्यादातर लड़के-लड़कियां शराबी-चरसी होते हैं, आप लोग मोदीजी या स्मृतिजी से यह सवाल क्यों नहीं पूछते?’

पूरी दुनिया की नजरों में समाज विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मामले में यह भारत का श्रेष्ठ शोध-अध्ययन संस्थान है. नियोम चोम्स्की और नोबेल-विजेता यूरोप-अमेरिका के कई विद्वान जेएनयू को बचाने का आह्वान कर चुके हैं. वे मोदी सरकार के रवैये पर चकित और क्षुब्ध हैं. लेकिन सत्ताधारी दल और उसके समर्थकों का जेएनयू-विरोधी दुष्प्रचार जारी है. क्या वे श्रेष्ठता पसंद नहीं करते! मैं ठोस तथ्य देकर जेएनयू पर उन दोनों की भ्रांति दूर करने की कोशिश कर सकता था. लेकिन उनकी बातों से मैं इतना खिन्न था कि कुछ भी नहीं कह सका. उनमें से एक आरएसएस से संबद्ध हैं और दूसरे की पास में दुकान है. दोनों के शैक्षिक-बौद्धिक स्तर पर टिप्पणी करने का कोई अर्थ नहीं!

दुनिया के सभी श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की तरह जेएनयू में भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के विषयों पर किसी जाति-संप्रदाय, राज्य या क्षेत्र के स्वार्थ से ऊपर उठ कर विमर्श और बहस-मुबाहिसे चलते रहते हैं. वैश्विक परिदृश्य में अमेरिकी वर्चस्व के खतरे, सीरिया संकट, पश्चिम एशिया, भारत-पाक रिश्ते, भारत-इजरायल या भारत-फिलीस्तीन रिश्ते, कश्मीर मसला, श्रीलंका की तमिल समस्या या ऐसे अनेक मसलों पर हमने जेएनयू की एक से बढ़ कर एक विचारोत्तेजक बहसें सुनी हैं. जाहिर है, आढ़त की दुकान पर बैठनेवाला हर सेठ इन बहसों का मर्म नहीं समझ सकता, ठीक वैसे ही जैसे जेएनयू में शोध करनेवाला आढ़त के बिजनेस का मर्म नहीं जान सकता. इन बहसों का मकसद सूचना और ज्ञान का विस्तार होता है.

जिन दिनों (1978-83) मैं जेएनयू का शोध-छात्र था, संकीर्ण, अनुदार और कुंठित किस्म के लोगों का एक खेमा तब भी जेएनयू के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार करता था. उस समय जेएनयू के छात्रों को पाकिस्तान या हाफिज सईद से नहीं, रूस या चीन से जोड़ा जाता था. तब उन्हें आतंकी नहीं, शराबी-चरसी या नक्सली जैसे विशेषण दिये जाते थे. मेरी समझ से इस बार तीन खास कारणों से जेएनयू को निशाने पर लिया गया है- पहला, रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उभरे जनाक्रोश को जेएनयू में जबर्दस्त समर्थन मिला. राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में ‘लाल’(वाम-सोशलिस्ट) और ‘नीले’(दलित-आंबेडकराइट्स) की एकजुट हुए, जो सत्ताधारी खेमे को बहुत नागवार गुजरा. दूसरा है संघ का पुराना एजेंडा. पांचजन्य-आर्गनाइजर के लेखों-टिप्पणियों और संघ के नये-पुराने नेताओं के बयानों से साफ है कि ‘संघ’ जेएनयू को ‘शत्रु-खेमे’ का ‘मुक्तांचल’ मानता रहा है. पूर्ण-बहुमत पाने के बाद उसने तय कर रखा था कि मौका पाते ही जेएनयू पर धारदार हमला करके ‘शत्रुओं’ का सफाया करके उनके ‘लाल मुक्तांचल’ को ध्वस्त कर यथाशीघ्र उस पर ‘भगवा’ लहराना है. तीसरा है- ‘काॅरपोरेट-नौकरशाहों’ की एक ताकतवर लाॅबी की सक्रियता. यह लाॅबी जेएनयू को अपनी मर्जी और अपने फायदे के बड़े शैक्षणिक संस्थान या थिंक-टैंक में रूपांतरित करना चाहती है. इसके लिए जरूरी था कि जेएनयू की वाम-सक्रियता और मुक्त-चिंतन की परंपरा को ध्वस्त किया जाये. शासन और संघ ने अपने ताजा अभियान से इस लाॅबी को भी खुश करने की कोशिश की है. पाकिस्तान-परस्त, हाफिज सईद-कनेक्शन या ‘कश्मीर की आजादी के समर्थक’ होने जैसी हास्यास्पद बातें इसीलिए प्रचारित की गयीं. दो-तीन न्यूज चैनल्स बड़ी आसानी से इस दुष्प्रचार-अभियान के पुर्जे बनने को तैयार हो गये. पर झूठ ज्यादा दिन नहीं टिकता. कुछ बड़े चैनलों ने ही उनके झूठ का बड़े प्रामाणिक ढंग से पर्दाफाश कर दिया. अब वे क्या करेंगे!

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

urmilesh218@gmail.com

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