व्यावहारिक, पर नीरस रेल बजट
रेलवे अरसे से एक आर्थिक-राजनीतिक दुष्चक्र में अटका है और इससे बाहर निकलने का रास्ता सुरेश प्रभु के दूसरे रेल बजट में भी साफ नहीं है. इस बजट की बहुत-सी घोषणाओं को अच्छे इरादों के रूप में ही देखा जा सकता है. सुरेश प्रभु का दूसरा रेल बजट भी पहलेवाले की ही तरह जरा नीरस […]
रेलवे अरसे से एक आर्थिक-राजनीतिक दुष्चक्र में अटका है और इससे बाहर निकलने का रास्ता सुरेश प्रभु के दूसरे रेल बजट में भी साफ नहीं है. इस बजट की बहुत-सी घोषणाओं को अच्छे इरादों के रूप में ही देखा जा सकता है.
सुरेश प्रभु का दूसरा रेल बजट भी पहलेवाले की ही तरह जरा नीरस सा है, पर अर्थव्यवस्था और रेलवे की मौजूदा सीमाओं के अंदर व्यावहारिक कहा जा सकता है. रेल बजट पर चैनलों और अखबारों की सुर्खियां इस बात पर केंद्रित रहेंगी कि ‘न यात्री किराया बढ़ाया गया, न माल भाड़ा.’ किराया नहीं बढ़ना लोगों को अच्छा लगता है. इसके अलावा, एक तो पिछले रेल बजट में किराये बढ़ाये जाने के बाद मोदी सरकार की काफी आलोचना हुई थी, दूसरे हाल में बच्चों से लेकर वरिष्ठ नागरिकों के रियायती टिकट पर जो नये नियम बने, उनसे भी सरकार की छीछालेदर हुई है.
पर इस मुद्दे को ठीक से समझना चाहिए. माल भाड़े के मामले में रेलवे पहले से ही ग्राहकों को गंवाता जा रहा है. अगर आप एक दुकानदार हैं, आपकी दुकान में ग्राहक घटने लगें और आपके पुराने ग्राहक बगल वाली दुकान में जाने लगे हैं, तो ऐसे मौके पर क्या आप अपने दाम बढ़ाएंगे? या फिर सेल लगा कर उन्हें फिर से अपनी ओर खींचना चाहेंगे?
पिछले रेल बजट में आकलन था कि 2015-16 में रेलवे की किराये और मालभाड़े से कुल आमदनी 1.83 लाख करोड़ रुपये रहेगी, पर कमाई केवल 1.67 लाख करोड़ रुपये ही रही. 2015-16 में लक्ष्य से पीछे रह जाने के बाद इस बार फिर से सुरेश प्रभु ने अगले साल के लिए आमदनी का लक्ष्य 1.84 लाख करोड़ रुपये रखा है, जो इस बार की कमाई से 10 प्रतिशत ज्यादा का लक्ष्य है. रेलवे की कमाई का मुख्य स्रोत माल ढुलाई है और पिछले साल रेलवे को सबसे ज्यादा चोट वहीं लगी. साल 2015-16 में माल ढुलाई से 1.21 लाख करोड़ रुपये की कमाई का लक्ष्य था, लेकिन 1.13 लाख करोड़ रुपये हासिल हुए हैं. अर्थव्यवस्था की हालत देखते हुए रेल मंत्री को 2016-17 में माल भाड़े से कमाई का लक्ष्य पिछले साल के लक्ष्य से नीचे रखना पड़ा है. माल ढुलाई के पूरे कारोबार में रेलवे की हिस्सेदारी लगातार गिरती रही है. यदि रेलवे को माल ढुलाई के क्षेत्र में ग्राहकों को नये सिरे से लुभाना है, तो माल समय पर और सुरक्षित ढंग से पहुंचाने का भरोसा जगाना होगा.
यात्री किराये की बात करें, तो आलम यह है कि लोकप्रिय मार्गों पर एसी द्वितीय श्रेणी के किराये भी हवाई किरायों के समतुल्य लगने लगे हैं, प्रथम एसी को तो जाने ही दें. फिर भी राजनीतिक कारणों से दबाव यह रहता है कि किराये बढ़ाने हैं तो एसी श्रेणियों में ही बढ़ाया जाये, सामान्य श्रेणियों में नहीं. इसलिए जहां आर्थिक कारणों से एसी किराये बढ़ाना मुनासिब नहीं होता, वहीं राजनीतिक कारणों से सामान्य श्रेणियों को नहीं छेड़ा गया.
सामान्य श्रेणी में अधिक सब्सिडी होने के मद्देनजर किराये बढ़ाये जाने चाहिए थे, मगर मोदी सरकार इसका राजनीतिक साहस नहीं जुटा सकी. दो साल से कम समय में यह सरकार अपना राजनीतिक साहस खोती दिख रही है. साधारण किरायों को कुछ कम रखना लोक-कल्याणकारी सरकार की अवधारणा के अनुकूल है, मगर इसका मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि साधारण श्रेणी के किरायों का लागत से कोई संबंध ही नहीं हो.
रेल मंत्री ने इस बार भी नयी ट्रेनों की घोषणा नहीं की है. ऐसा करके उन्होंने फलां-फलां राज्य को ज्यादा मिल गया, फलां को कम मिला, जैसी आलोचनाओं से खुद को बचा लिया. हमसफर, तेजस, उदय और अंत्योदय नाम से ट्रेनों की नयी श्रेणियों की घोषणा की गयी है और ये सभी श्रेणियां यात्रियों के अलग-अलग वर्गों की जरूरतों को पूरी करनेवाली होंगी.
रेलवे में सुधार लानेवाली सबसे महत्वपूर्ण घोषणा समर्पित माल ढुलाई गलियारा (डीएफसी) से संबंधित है. वर्ष, 2019 तक समर्पित उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम और पूर्वी तटीय माल ढुलाई गलियारा बनाने की घोषणा की गयी है. इससे न केवल माल ढुलाई की क्षमता बढ़ेगी और रेलवे समयबद्ध ढंग से माल ढुलाई करके ज्यादा ग्राहकों को आकर्षित कर सकेगा, बल्कि इससे यात्री ट्रेनोंवाली पटरियों पर बोझ कम होगा और बड़ी संख्या में नयी यात्री ट्रेनें चलायी जा सकेंगी. साल 2020 तक 95 प्रतिशत ट्रेनों को सही समय पर चलाने और सबको कन्फर्म टिकट देने की घोषणा इस योजना की सफलता से जुड़ी हुई है.
बाजार और उद्योग जगत इस बात से खुश है कि क्षमता विस्तार के लिए इस रेल बजट में निर्धारित योजनागत खर्च 1.21 लाख करोड़ रुपये का रखा गया है, जो पिछले बजट से लगभग 20 प्रतिशत ज्यादा है. इसमें नयी योजनाएं शुरू करने के बदले पहले से चल रही परियोजनाओं को पूरा करने पर ज्यादा जोर देने की बात है. यह नजरिया व्यावहारिक है.
बहरहाल, मसला इरादों का नहीं, बल्कि पैसे जुटाने का है. आपके इरादे अच्छे हैं, पर योजनाओं पर अमल के लिए पैसे कहां से लायेंगे? वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए 32,000 करोड़ रुपये कहां से आयेंगे? संसाधनों के व्यावसायिक इस्तेमाल से धन जुटाने की बातें तो एनडीए-1 के जमाने से ही चल रही हैं, यूपीए सरकार भी ऐसी बातें करती रही, लेकिन ये बातें हकीकत में परवान नहीं चढ़ पातीं. रेलवे अरसे से एक आर्थिक-राजनीतिक दुष्चक्र में अटका है और इससे बाहर निकलने का रास्ता सुरेश प्रभु के दूसरे रेल बजट में भी साफ नहीं है. इस बजट की बहुत-सी घोषणाओं को अच्छे इरादों के रूप में ही देखा जा सकता है. घोषणाओं को लेकर तमाम सरकारों के प्रदर्शन को देखते हुए तब तक बड़ी उम्मीदें नहीं बांधी जा सकतीं, जब तक इन पर अमल होना दिखने न लगे. इनमें सबसे अहम मसला रेलवे के विकास के लिए संसाधनों को जुटाने का है. एक बार फिर से पीपीपी यानी सरकारी-निजी साझेदारी का राग अलापा गया है, मगर ऐसी साझेदारी न यूपीए सरकार में परवान चढ़ पायी थी, न मोदी सरकार के पौने दो साल में किसी भी बुनियादी ढांचा क्षेत्र में इस पर बात ज्यादा आगे बढ़ पायी है.
कहा गया है कि 400 रेलवे स्टेशनों का कायाकल्प पीपीपी से होगा. ढांचागत क्षेत्र में भले ही निजी कंपनियों ने हिचक दिखायी हो, पर खानपान जैसी सुविधाओं में निजी क्षेत्र जरूर आने को उत्सुक रहा है. मगर अब तक पीपीपी का रेलवे सुविधाओं के क्षेत्र में जहां-जहां पदार्पण हुआ है, वहां बेहतर सुविधाओं के बदले महंगी सुविधाओं के ही दर्शन हुए हैं.
राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
Rajeev@sharemanthan.com