पता नहीं कल हो न हो!

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार रोज की तरह शाम के समय पार्क में खासी भीड़ है. आठ-दस वृद्धाएं बड़ी बेचैन हैं. बार-बार प्रवेश द्वार पर नजर उठती है. उन्हें किसी विशेष अतिथि का इंतजार है. तभी व्हील चेयर पर एक वृद्धा आती दिखती है. उनके झुर्रीदार चेहरे फूल की मानिंद एकदम से खिल उठते हैं. गयी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 29, 2016 6:17 AM

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

रोज की तरह शाम के समय पार्क में खासी भीड़ है. आठ-दस वृद्धाएं बड़ी बेचैन हैं. बार-बार प्रवेश द्वार पर नजर उठती है. उन्हें किसी विशेष अतिथि का इंतजार है. तभी व्हील चेयर पर एक वृद्धा आती दिखती है. उनके झुर्रीदार चेहरे फूल की मानिंद एकदम से खिल उठते हैं. गयी हुई सांसें मानो लौट आती हैं. व्हील चेयर वाली वृद्धा इस गैंग की रिंग लीडर है. इसे सब हंटरवाली कहते हैं. वहां उसे उसकी बहू लेकर आयी है. वृद्धा कहती है- बहू, अब तू जा. दो घंटे बाद आना. मोबाइल कर दूंगी.

एक वृद्धा अपनी खुशी व्यक्त करती है. शुक्र है कि तू जिंदा है. हम तो डर गये थे कि तेरी बहू ने तुम्हें निपटा न दिया हो. दूसरी के पेट में तो कबसे मरोड़ उठ रहे हैं. आओ अब भजन-कीर्तन करें. तीसरी ढोलक बजाती है… आज बहू ने हद कर दी, रोटी को घी तक नहीं दिखाया…. मेरी वाली अपना पराठा मक्खन से चुपड़ती है… मेरी तो बड़ी डॉक्टर ही है जैसे… भैंसी हुई जा रही है… नासपीटी कहीं की…

रोजाना एक जैसे मुद्दे और घटनाएं. बस, थोड़ा नमक-मिर्च कभी तेज और कभी हल्का होता है.बहू-पुराण में तकरीबन दो घंटे बीत जाते हैं. वृद्धाएं जब पार्क में घुसी थीं, तो इच्छा मृत्यु की बात कर रही थीं. लेकिन बहू-पुराण सत्र के चलते उनमें बला की एनर्जी और जीने की उमंग पैदा हो गयी है, सौ साल से एक दिन भी कम नहीं.

तभी हंटरवाली की बहू आ गयी. एक कुशल अभिनेत्री की भांति वह अपनी मुख-मुद्रा करुणामयी सास में बदल देती है. आ गयी मेरी दुलारी बहू, सयानी बहू. बहू नहीं बेटी है मेरी. ईश्वर ऐसी बहू सबको दे. चल बहू. बड़ी भूख लगी है. आज कैंडी वाली आइसक्रीम खिला दे. बड़ी इच्छा हो रही है. पता नहीं कल हो न हो!

बहू प्यार से सास को झिड़क देती है- छी, कैसी गंदी बात करती हैं आप. अभी तो आपको सौ साल और जीना है.

बहू सास को लेकर पार्क से चली जाती है. इसी के साथ बाकी वृद्धाएं भी धीरे-धीरे खिसक लेती हैं. हंटरवाली को बहू ऑरेंज कैंडी ले देती है. वह बच्चों की तरह झूम उठती है. फिर आशीषों के साथ लंबी लंबी चुस्कियां.

बंदा सोच रहा है. क्या-क्या आइटम बनाये हैं कुदरत ने? जब तक बहुओं की बुराई न कर लें, उनका खाना हजम नहीं होता.

बंदे का कई दिन बाद जाना हुआ पार्क में. गौर किया कि हंटरवाली ग्रुप में नहीं है. पार्क खाली-खाली और उदास सा दिख रहा है. थोड़ी उत्सुकता बढ़ी. बर्दाश्त न हुआ. वहां नियमित रूप से टहलनेवाली एक महिला से पूछ ही लिया.

उन्होंने बंदे को सर से पांव तक घूरा और फिर मुस्कुरायीं- कोई उम्रदराज दो-तीन दिन यदि न दिखें, तो समझ जाया करो कि तस्वीर बन टंग गयीं दीवार पर. उस पर माला और नीचे धुआं-धुआं करती अगरबत्ती. सोचती हूं मैं भी एक बढ़िया सी तस्वीर एनलार्ज कराके माउंट करा लूं. जाने कब यमराज जी कहें, चल बहना, तेरा भी टाइम पूरा हुआ.

हा हा हा… बंदे को रोज टहलनेवाले कई अन्य बुजुर्ग भी नहीं दिखे. वह गहरी फिक्र में डूब गया. बंदा फैसला करता है कि कल से पार्क में नहीं, गलियों में टहलेगा.

Next Article

Exit mobile version