जेएनयू से निकले कुछ सवाल

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को कमजोर और समाप्त करनेवाली शक्तियां कौन हैं? क्यों सरकारें कुलपतियों की नियुक्तियां अपने मनोनुकूल करती हैं? उदार राष्ट्रवाद और उदारविहीन राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद अौर फासीवाद, धर्मनिरपेक्ष राज्य और धार्मिक राज्य, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद, तर्कवाद और आस्थावाद, अनुशासित और अनुशासन विहीन छात्र-संगठन, सामाजिक दायित्व और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 29, 2016 6:19 AM

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को कमजोर और समाप्त करनेवाली शक्तियां कौन हैं? क्यों सरकारें कुलपतियों की नियुक्तियां अपने मनोनुकूल करती हैं?

उदार राष्ट्रवाद और उदारविहीन राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद अौर फासीवाद, धर्मनिरपेक्ष राज्य और धार्मिक राज्य, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद, तर्कवाद और आस्थावाद, अनुशासित और अनुशासन विहीन छात्र-संगठन, सामाजिक दायित्व और दलीय प्रतिबद्धता, विवेक-चेतना और उत्तेजना, अधूरी आजादी और पूर्ण आजादी, विविधता और एकरूपता, वास्तविक राष्ट्रप्रेम और छद्म राष्ट्रप्रेम, संस्थाओं का उन्नयन और पतन, संविधान प्रेमी और संविधान विरोधी, अवसरवादी राजनीति और मूल्य परक राजनीति, वैचारिक स्वतंत्रता और कट्टरता, गांधी और गोडसे, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और बहुलतावादी राष्ट्रवाद, स्वस्थ लोकतंत्र और रुग्ण लोकतंत्र, भिन्न विचार बनाम समान विचार, मृत्युदंड और आजीवन करावास, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह के बारे में हम-आप क्या सोचते हैं?

1860 में भारतीय दंड संहिता में अंगरेजों ने राजद्रोह एक्ट (124ए) शामिल किया, जो 1870 से लागू हुआ. बाल गंगाधन तिलक पर 1897 में इसे लागू किया गया. ब्रिटिश भारत में तिलक और गांधी को अंगरेजों ने राजद्रोही घोषित किया था. एनडीए-1 (2001) में दिल्ली विश्वविद्यालय के चार छात्रों पर यह आरोप मढ़ा गया था.

दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति दीपक नायर ने उपप्रधानमंत्री व गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से छात्रों पर लगाये गये राजद्रोह के आरोप को वापस लेने का अाग्रह किया था. दो सप्ताह में छात्रों को आरोप-मुक्त किया गया. जेएनयू के कुलपति प्रो जगदीश कुमार ने न तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह से भेंट की है और न उनसे जेएनयू छात्रों पर लगाये गये राजद्रोह को वापस लेने का अनुरोध किया है.

कश्मीर में सेना की मौजूदगी के बाद भी ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगते हैं. जेएनयू में जिन लोगों ने ऐसे नारे लगाये, उनकी अब तक पहचान नहीं हुई है. वीडियो बनानेवालों की अब तक पहचान नहीं हुई है. सबूत होने और सबूत गढ़ने में अंतर है. हमारे समय में अधिकतर सबूत गढ़े जा रहे हैं.

बिना किसी प्रमाण के कन्हैया पर राजद्रोह का आरोप लगाना न्यायसंगत नहीं है. सोली सोराबजी, पी चिदांबरम, शत्रुघ्न सिन्हा तथा कई प्रमुख व्यक्तियों के अनुसार छात्रों पर देशद्रोह का आरोप गलत है, क्योंकि जेएनयू में हिंसा का कोई वातावरण नहीं था. जेएनयू में कभी विरोधी विचारों वाले छात्रों के बीच मारपीट नहीं हुई. वहां जिस प्रकार छात्रसंघ का चुनाव होता है, वह एक उदाहरण है, जिससे राजनीतिक दलों को सीखने की जरूरत है.

न तो भिन्न विचार रखना राजद्रोह है, न सत्ता विरोधी नारे लगाना. वास्तविक और पूर्ण आजादी की मांग करना भी राजद्रोह के अंतर्गत नहीं आता. 20 जनवरी, 1962 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में भाषण को तभी देशद्रोह माना, जब वह हिंसा के लिए उत्तेजित करे या सार्वजनिक अव्यवस्था उत्पन्न करे. इस फैसले के आधार पर जेएनयू छात्रों पर लगाया गया राजद्रोह का आरोप सही नहीं ठहरता.

स्वतंत्र भारत में गांधी और नेहरू ने 124-ए कानून का विरोध किया था. लोकतंत्र में यह कानून क्या लोकतंत्र विरोधी नहीं है?

जेएनयू को लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी, पांचजन्य, भाजपा सांसदों के मत समान क्यों हैं, क्योंकि जेएनयू की अपनी एक संस्कृति है. वह सांप्रदायिक, फासीवाद, ब्राह्मणवाद, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विरुद्ध है. वह देश में अकेली यूनिवर्सिटी है, जहां विभिन्न विचारधाराएं हैं. वह भारतीय लोकतंत्र का सच्चा उदाहरण है. वहां असहमति और विरोध का सम्मान है, तर्क है, बहसें हैं, तथ्य और प्रमाण हैं. वह सही अर्थों में एक बौद्धिक केंद्र है.

अखंडता से कम महत्वपूर्ण भावात्मक एकता नहीं है, जिसे आज समाप्त किया जा रहा है. विदेशों के कई विश्वविद्यालयों और दुनिया के 400 से ज्यादा प्रोफेसरों-विचारकों ने चिंता व्यक्त की है, भर्त्सना की है और सत्ता की अधिकारवादी संस्कृति की धमकियों को औपनिवेशिक समय और आपातकाल से जोड़ा है. न्यूयार्क टाइम्स के संपादकीय में सरकार द्वारा असहमति के स्वरों को कुचलने की बात कही गयी है. उग्र वामपंथ से क्या कम खतरनाक है उग्र राष्ट्रवाद?

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