टैक्स इतना ले लिया, दोगे कितना!

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काम आजाद भारत का पहला बजट नवंबर 1947 में पेश किया था. तब से लेकर अब तक के 68 सालों में अगर देश के कोने-कोने तक सड़क, बिजली, पानी व सिंचाई का भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसा सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं पहुंचा है, तो इसके लिए हम और हमारे बाप-दादा ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 29, 2016 6:21 AM
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काम
आजाद भारत का पहला बजट नवंबर 1947 में पेश किया था. तब से लेकर अब तक के 68 सालों में अगर देश के कोने-कोने तक सड़क, बिजली, पानी व सिंचाई का भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसा सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं पहुंचा है, तो इसके लिए हम और हमारे बाप-दादा ही दोषी हैं. हम सिर नीचा किये गाय की तरह घास चरते रहे. कभी सिर उठा कर पूछा नहीं कि हे सरकार! हम प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आपको जो टैक्स देते हैं, उसका तुमने क्या किया?
दुनिया का इतिहास गवाह है कि जनता जितना टैक्स देती है, उससे कुछ सालों के भीतर ही देश का भौतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक इंफ्रास्ट्रक्चर इतना चौचक बनाया जा सकता है कि बाद में केवल उसके रख-रखाव का सालाना खर्च ही उठाना पड़ता है. ऐसा तंत्र बन जाने के बाद लोग अपनी मेहनत व मेधा से रोजी-रोजगार चलाते हैं और उन्हें सरकार की किसी कृपा की जरूरत नहीं होती.
हां, टैक्स के पैसे के एवज में वे सरकार से अपना जरूरी हक लेना नहीं छोड़ते. भ्रष्टाचार ऐसे देशों में शून्य पर पहुंच जाता है और टैक्स की दरें घटती चली जाती हैं. डेनमार्क भ्रष्टाचार से मुक्त है. वहीं, मध्य-पूर्व के सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे कई देशों में कोई व्यक्तिगत इनकम टैक्स नहीं लगता.
लेकिन, हम तो सरकार को माई-बाप समझते रहे. जितना झोली में डाल दिया, उसे अपनी किस्मत और उनकी कृपा समझते रहे. नतीजा, सत्ता में बैठे नेता व अफसर और उनके दलाल चांदी काटते रहे. सड़कें बनायी और उखाड़ी जाती रहीं. गांव ही नहीं, शहर तक घंटों बिजली से महरूम रहे. बच्चे शिक्षा को तरसते रहे, बीमार इलाज को तरसते रहे और नौजवान नौकरी के लिए भगवान, अल्ला, गॉड या किसी पेड़ में बसे ब्रह्म या डीह बाबा और पीर-औलिया के रहमो-करम के भरोसे रहे.
आज फिर दशकों से अटके उन्हीं अपरिहार्य कामों को पूरा करने का वचन दिया जायेगा. वित्त मंत्री अरुण जेटली बतायेंगे कि उनकी सरकार ने कितना किया और कितना करने जा रही है.
लेकिन शायद वे नहीं बतायेंगे कि चालू वित्त वर्ष 2015-16 में अप्रैल से जनवरी तक के दस महीनों में हमने कच्चे तेल के दाम घटने से पेट्रोलियम आयात में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में जो 47.3 अरब डॉलर बचाये हैं, उसका क्या किया गया? 15 अप्रैल, 2015 से 25 फरवरी, 2016 के बीच भारत में आयात होनेवाले कच्चे तेल का दाम 58.36 डॉलर प्रति बैरल से 48.5 प्रतिशत घट कर 30.05 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया है.
चौंकानेवाली बात यह है कि इसी दौरान दिल्ली को मानक मानें तो पेट्रोल का खुदरा मूल्य 59.20 रुपये से 59.63 रुपये प्रति लीटर और डीजल का खुदरा मूल्य 47.20 रुपये से 44.96 रुपये पर कमोबेश स्थिर है. देश में इस दौरान पेट्रोलियम खपत का 80.3 प्रतिशत आयात किया गया. सवाल उठता है कि आयात मूल्य में आयी 48.51 प्रतिशत कमी आखिर कहां गयी? इसका लगभग 9.3 प्रतिशत असर तो डॉलर के मुकाबले रुपये के 62.40 से 68.78 पर चले जाने से सूख गया होगा. लेकिन बाकी 39.2 प्रतिशत बचत का क्या हुआ?
चालू वित्त वर्ष 2015-16 के बजट में कुल टैक्स संग्रह का लक्ष्य 14.49 लाख करोड़ रुपये का है. इसमें से 31 जनवरी तक 10.66 लाख करोड़ रुपये जुटाये गये हैं. लेकिन प्रत्यक्ष टैक्स संग्रह का 10.9 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि परोक्ष टैक्स संग्रह 33.7 प्रतिशत बढ़ा है, जिसमें बड़ा योगदान पेट्रोलियम पदार्थों पर बढ़ाई गयी कस्टम व एक्साइज ड्यूटी का है. अप्रैल 2015 से जनवरी 2016 के बीच पेट्रोल पर केंद्रीय टैक्स प्रति लीटर 18.13 रुपये से 21.85 रुपये (20.52 प्रतिशत) और डीजल पर 10.19 रुपये से बढ़ा कर 17.67 रुपये (61.96 प्रतिशत) बढ़ाया गया है. किस्मत के इस प्रताप से वित्त मंत्रालय कह रहा है कि वह टैक्स संग्रह का लक्ष्य पूरा कर लेगा और राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (डीजीपी) का 3.9 प्रतिशत रखने का वचन पूरा हो जायेगा.
राजकोषीय घाटे व जीडीपी के इस अनुपात को बड़ा पवित्र माननेवाले देशी-विदेशी अर्थशास्त्री इस पर जम कर थुक्का फजीहत करेंगे. लेकिन आम भारतीय के लिए दो चीजें सबसे अहम हैं. एक, बजट में हमारी बचत को बढ़ाने का क्या इंतजाम किया गया? दो, उसमें रोजी-रोजगार बढ़ाने के क्या उपाय किये गये? अगर शुक्रवार को आयी आर्थिक समीक्षा की मानें, तो इस बार इनकम टैक्स से छूट की सीमा नहीं बढ़ने जा रही है. अपेक्षा थी कि इसे 2.5 लाख से बढ़ा कर 3 से 4 लाख किया जा सकता है. लेकिन, अब इसकी कोई उम्मीद नहीं दिख रही.
हां, रोजगार के मोर्चे पर कुछ अच्छे संकेत दिख रहे हैं. जेटली सरकार द्वारा गठित 11 सदस्यीय समिति की कुछ सिफारिशें मान सकते हैं. समिति का कहना था कि जीडीपी बढ़ने के साथ देश में रोजगार नहीं बढ़ा है.
इस स्थिति को दुरुस्त करने के लिए उसने टेक्सटाइल, डिफेंस, रेलवे और कृषि आधारित उद्योगों में विशेष उपाय करने को कहा है. कुछ कानूनों को बदलने और कई टैक्स रियायतों की भी सिफारिश उसने की है. जैसे, आयकर कानून के सेक्शन के 80-जेजेएए के लाभ मैन्युफैक्चरिंग के अलावा सेवा क्षेत्र को भी दे दिये जायें. सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र को कृषि की तरह ब्याज दर में 3 प्रतिशत छूट दी जा सकती है.
असल में सरकार खुद रोजगार नहीं देसकती. जिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए आंदोलन हो रहे हैं, उनकी संख्या घटती जा रही है. 1992-93 में जब देश की आबादी 83.9 करोड़ थी, तब सरकारी क्षेत्र में 1.95 करोड़ नौकरियां थीं. अब जबकि देश की आबादी 125 करोड़ के पार जा चुकी है, तब सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की संख्या घट कर 1.76 करोड़ पर आ चुकी है.
इसलिए सरकार नौकरियां बढ़ाने के लिए पूरी तरह निजी क्षेत्र पर निर्भर है. फांस यह है कि निजी क्षेत्र का मूल मकसद नौकरियां देना नहीं, बल्कि मुनाफा बढ़ाते जाना है. देखिए, अरुण जेटली इस अंतर्विरोध से कैसे निपटते हैं.

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