संभावनाओं का बजट
‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक/ पालई पोसई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक’- देश का सांस्कृतिक मानस राजधर्म की परीक्षा के लिए गोस्वामी तुलसीदास के इस दोहे को अक्सर कसौटी के रूप में प्रयुक्त करता है. इस दोहे की टेक थाम कर नये बजट की समीक्षा में पूछा जा सकता है कि पूरी अर्थव्यवस्था […]
‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक/ पालई पोसई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक’- देश का सांस्कृतिक मानस राजधर्म की परीक्षा के लिए गोस्वामी तुलसीदास के इस दोहे को अक्सर कसौटी के रूप में प्रयुक्त करता है.
इस दोहे की टेक थाम कर नये बजट की समीक्षा में पूछा जा सकता है कि पूरी अर्थव्यवस्था को पालने-पोसने के ख्याल से तैयार किये गये सालाना आमदनी-खर्च के इस लेखा-जोखा में ‘विवेक’ का दामन कहां तक थामा गया है? यह तथ्य जगजाहिर है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. लगातार दो साल से सूखे की मार झेल रहे ग्रामीण भारत को बजट से फौरी राहत की उम्मीद थी. बजट के तुरंत पहले प्रधानमंत्री की दो घोषणाओं ने इस उम्मीद को और ज्यादा बल दिया.
मध्यप्रदेश के सीहोर में किसान-महासम्मेलन में नयी कृषि बीमा योजना की औपचारिक शुरुआत करते हुए उन्होंने किसानों के दुख-दर्द को दूर करने को अपनी प्राथमिकता बताया था और बरेली के किसान-सम्मेलन में अपने भाषण में कमोबेश इसी बात को दोहराते हुए कहा था कि सरकार 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का इरादा रखती है.
अब सवाल यह है कि यह नेकनीयती बजट में ठोस समाधान की शक्ल में कहां तक परिणत हुई है? पहली नजर में देखें, तो इसमें ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दी गयी है. वर्ष 2018 तक शत-प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण, तकरीबन सवा दो लाख किलोमीटर सड़कों का निर्माण, एक साल में जन औषधि योजना के तहत तीन हजार स्टोर खोलना, मनरेगा के मद में 38 हजार करोड़ से अधिक का आवंटन, हर परिवार को चिकित्सा के मद में एक लाख रुपये तक का बीमा कवच, पौने तीन लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा ग्राम-पंचायतों और शहरी स्वशासन की स्थानीय इकाइयों को तथा साढ़े नौ हजार करोड़ ‘स्वच्छ भारत’ अभियान को देने जैसी पहलें ग्रामीण संकट के प्रति केंद्रीय बजट की संवेदनशीलता को प्रकट करती हैं.
लेकिन, क्या यह संवेदनशीलता देश के ग्रामीण परिवारों में सूखे की स्थिति से जूझ रहे 58 प्रतिशत हिस्से यानी नौ करोड़ किसान परिवारों की आमदनी इतनी बढ़ा सकती है कि ये परिवार मांग और आपूर्ति की कड़ी में अपने को सम्मानपूर्वक स्थापित कर पायें? प्रश्न के उत्तर के लिए बस दो बातों पर ध्यान देना काफी होगा.
कृषि मंत्रालय के नये आंकड़ों के अनुसार साल 2014-15 से 2015-16 के बीच धान और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बहुत कम वृद्धि हुई है. धान के एमएसपी में दो वित्त वर्षों के बीच मात्र 3.7 प्रतिशत (1360 से बढ़ कर 1410 रुपये प्रति कुंतल) की और गेहूं के एमएसपी में 5.2 प्रतिशत (1450 से बढ़ कर 1525 रुपये प्रति कुंतल) की वृद्धि हुई है.
ग्रामीण क्षेत्र में खाद्यान्न की बढ़ती महंगाई की तुलना में यह वृद्धि बहुत कम है. दूसरे, देश के सकल फसली क्षेत्र का मात्र 46.9 प्रतिशत हिस्सा सिंचिंत है, शेष हिस्से को मॉनसून के भरोसे रहना पड़ता है. मॉनसून के भरोसे रहनेवाले इलाके में ही 84 प्रतिशत दलहन, 80 प्रतिशत बागवानी, 72 प्रतिशत तेलहन, 64 प्रतिशत कपास और 42 प्रतिशत खाद्यान्न का उत्पादन होता है और इस क्षेत्र की विपदा के मुख्य कारक यानी सिंचाई सुविधा के अभाव को दूर करने के लिए वित्तमंत्री ने 20 हजार करोड़ सिंचाई निधि के तौर पर दिया है, जबकि पिछले साल 50 हजार करोड़ दिये गये थे और तब भी कृषि मंत्रालय के नये अनुमान कहते हैं कि कृषि-उत्पादन में कमी ही हुई है.
सरकार को यह भी समझना चाहिए कि यदि नजदीक में अस्पताल न हों, तो स्वास्थ्य बीमा का कवच सजावटी बन कर रह जाता है, जेब में पैसे बाजार भाव के हिसाब से कम हों, तो फसल बीमा योजना पर भरोसा नहीं जमता और एक ऐसे वक्त में जब बुंदेलखंड जैसे इलाके में भुखमरी की हालत में अनाज के गोदामों में लूट की नौबत आन खड़ी हो और कुछ प्रदेशों में भोजन का अधिकार कानून कारगर क्रियान्वयन की राह देख रहा हो, निदान सरकारी अनाज के दुकानों को हाइटेक बनाना या आधार-कार्ड के जोर से सब्सिडी के पैसे बैंक में पहुंचाना नहीं, बल्कि जीवन और जीविका के लिए फौरी तौर पर राहत के ठोस उपाय करना होता है.
बहरहाल, शिक्षा और स्वास्थ्य समेत सामाजिक क्षेत्र में 1.51 लाख करोड़ से अधिक का आवंटन, कौशल विकास के मद में 1,804 करोड़ का आवंटन, इंफ्रास्ट्रक्चर पर विशेष ध्यान जैसी घोषणाएं बेहतरी की उम्मीद बढ़ाती हैं. आवासीय किराये पर आय कर में छूट की सीमा बढ़ाने से वेतनभोगी वर्ग के बड़े तबके को थोड़ी राहत मिलेगी. पर, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूती देने के लिए 25 हजार करोड़ रुपये पर्याप्त नहीं हैं.
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि यह बजट अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों और नागरिकों के अलग-अलग वर्गों को राहत देने के उद्देश्य से प्रेरित है. अब जरूरत इस बात की है कि सरकार आवंटनों के समुचित इस्तेमाल पर जोर दे, ताकि मौजूदा वित्त वर्ष की तरह मंत्रालयों को दी गयी राशि का बड़ा हिस्सा यूं ही पड़ा न रह जाये.