सिद्धारमैया की घड़ी

लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों से समुचित मर्यादाओं के पालन की उम्मीद की जाती है. यह बड़ी चिंता की बात है कि अक्सर हमारे राजनेता इस उम्मीद पर खरे नहीं उतरते. शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार इस हद तक सामान्य मामला हो चला है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्पष्टता असाध्य आदर्श बन चुकी हैं. कर्नाटक की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 4, 2016 12:31 AM
लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों से समुचित मर्यादाओं के पालन की उम्मीद की जाती है. यह बड़ी चिंता की बात है कि अक्सर हमारे राजनेता इस उम्मीद पर खरे नहीं उतरते. शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार इस हद तक सामान्य मामला हो चला है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्पष्टता असाध्य आदर्श बन चुकी हैं.
कर्नाटक की राजनीति में पिछले कई सप्ताह से एक घड़ी चर्चा में है, जो कई महीनों से मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की कलाई की शोभा बनी हुई थी. विपक्ष ने पूछा है कि करीब 70 लाख रुपये की यह बेशकीमती घड़ी मुख्यमंत्री के पास कैसे आयी. सिद्धारमैया का कहना है कि इसे उनके एक मित्र ने उपहार में दी थी. अब सीधा सवाल यह उठता है कि मुख्यमंत्री को आखिर इतना महंगा उपहार कोई क्यों देगा, और अगर यह सिर्फ उपहार ही था, तो फिर बरसों से चली आ रही परिपाटी के अनुरूप मुख्यमंत्री ने तुरंत उसे सरकारी खजाने के सुपुर्द क्यों नहीं कर दिया.
विवाद बढ़ने पर अब उन्होंने इस घड़ी को विधानसभा अध्यक्ष के मार्फत खजाने में जरूर जमा करा दिया है, पर इससे उन सवालों का जवाब नहीं मिल जाता है, जो जनता और विपक्ष की ओर से खड़े किये गये हैं. आजादी के बाद से ही यह परंपरा रही है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं को मिलनेवाले महंगे उपहार सरकारी खजाने के सुपुर्द कर दिया जाता है. दुर्भाग्य की बात है कि लोकतंत्र की मजबूती और पारदर्शिता बढ़ने के बावजूद यह परिपाटी कमजोर होती जा रही है, जिसका बड़ा उदाहरण सिद्धारमैया की घड़ी है.
इस प्रकरण ने सार्वजनिक जीवन में और उच्च पदों पर बैठे नेताओं और अधिकारियों के बाबत उपहारों के संदर्भ में एक नियमावली बनाने की जरूरत को रेखांकित किया है. इस दिशा में त्वरित पहल करना जरूरी हो गया है. मसला यह नहीं है कि सिद्धारमैया या कोई अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी प्राप्त उपहार पर उचित कर अदा करता है या नहीं, बात यह है कि यह उपहार उनके खास ओहदे पर होने के कारण मिलते हैं और इस प्रकार वे जनता की संपत्ति होने चाहिए.
अगर इस रवैये पर लगाम नहीं लगायी गयी, तो यह उपहार संस्कृति व्यापक भ्रष्टाचार का रूप ले सकती है. उपहारों के सरकारी खजाने में जमा कराने की बाध्यता इसे नियंत्रित कर सकती है और इससे उपहार लेने-देने में पारदर्शिता भी आयेगी. आशा है कि सिद्धारमैया की घड़ी के बारे में विपक्ष के आरोपों की जांच होगी और पूरा मामला खुल कर सामने आयेगा. बहरहाल, इससे सीख लेते हुए उपहारों के संबंध में कानूनी प्रावधान करना समय की जरूरत है.

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