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झारखंड आंदोलन के बाद झारखंड
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ब्रिटिश औपनिवेशिक समय से ही झारखंडी समाज पर बाहरी दबाव तेजी से पड़ने लगा. यह दबाव आजादी के बाद नये रूप में चिह्नित किये गये संसाधनों और संस्थाओं पर नियंत्रण को लेकर था. नये रूप में चिह्नित संसाधन और संस्था थे- जंगल, खान-खदान, बालू, पत्थर, […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
ब्रिटिश औपनिवेशिक समय से ही झारखंडी समाज पर बाहरी दबाव तेजी से पड़ने लगा. यह दबाव आजादी के बाद नये रूप में चिह्नित किये गये संसाधनों और संस्थाओं पर नियंत्रण को लेकर था. नये रूप में चिह्नित संसाधन और संस्था थे- जंगल, खान-खदान, बालू, पत्थर, थाना, ब्लॉक, कचहरी, विश्वविद्यालय इत्यादि.
इन संसाधनों और संस्थाओं पर बहिरागत गैर-झारखंडियों का प्रभुत्व कायम हो गया, जिन्हें आमतौर पर ‘दिकु’ कहा गया. इनकी वजह से सहजीवी झारखंडी जनता खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चे पर आंतरिक उपनिवेश का शिकार महसूस करने लगी. झारखंड आंदोलन को गति देने में यह एक बड़ा कारण था. औपनिवेशिक शोषण के सामने सहजीविता और सह-अस्तित्व ही आंदोलन की दार्शनिक भावभूमि रही है.
हालांकि, आज झारखंड का अलग अस्तित्व बन गया है, लेकिन झारखंडी नेतृत्व में जाने के बावजूद झारखंड औपनिवेशिक ‘दिकु’ मंशाओं से बाहर नहीं निकल पाया है. इसी का दुष्परिणाम है कि झारखंड में आज तक न तो स्थानीय नीति बन पायी है, न ही आदिवासी हितों के लिए प्रशासनिक सतर्कता है.
जिन लोगों ने आंदोलनों में कुर्बानियां दी वे आज ठगे हुए महसूस कर रहे हैं. आजादी के बाद के दिनों से ही झारखंड में जो वर्चस्वकारी ‘दिकु’ मानसिकता जड़ जमा रही थी, वह सोच और विचार में अलग राज्य गठन के बाद भी उसी रूप में बनी रही.
फर्क सिर्फ इतना हुआ कि पहले वर्चस्व या शोषण का आरोप ‘बाहरी दिकुओं’ के सिर मढ़ा जाता था, वह अब स्थानीय झारखंडी प्रतिनिधियों और नौकरशाहों के सिर भी आ गया. यानी झारखंडी समाज से ही एक बिचौलिया तबका उभरा जो पूर्व की वर्चस्वकारी मानसिकताओं का वाहक बना. जब तक इस तरह के गठजोड़ को नहीं समझा जायेगा, तब तक इस रहस्य को समझ पाना मुश्किल है कि आदिवासी हितों के लिए कठोर संवैधानिक कानून होने के बावजूद आदिवासी जमीनों की लूट कैसे संभव हो पा रही है?
चूंकि उदारवाद के दौर में ही झारखंड राज्य का गठन हुआ था, इसलिए उसके गठन के बाद नव-औपनिवेशिक बाजारवादी ताकतों को झारखंड में बेहद उर्वर जमीन मिली. दूसरी ओर इसी औपनिवेशिक विस्तार के समानांतर झारखंड में माओवादी आंदोलन का उभार भी है.
पिछले पंद्रह वर्षों से झारखंड को संचालित और नियंत्रित करनेवाले त्रिदेव हैं- दिकु (बहिरागत नीति-निर्धारक, नौकरशाह, ठेकेदार), नवबाजारवादी शक्तियां और स्थानीय बिचौलिए (झारखंडी प्रतिनिधि सहित). इन तीनों को झारखंड की सहजीविता और सह-अस्तित्व की कोई जानकारी नहीं है और न ही ये अपने हितों के लिए इसे समझना चाहते हैं.
परिणामस्वरूप इनके नेतृत्व में जो भी नीतियां लागू और संचालित होती हैं, वे झारखंडी स्वभाव के नहीं होते हैं. शिक्षा से लेकर कृषि, उद्योग और व्यवसाय की नीतियों में यह देखा जा सकता है. झारखंडियों को इस धोखे में रखा गया है कि उनकी मातृभाषा हिंदी है, जबकि ऐसा नहीं है. झारखंडियों की अपनी समृद्ध मातृभाषाएं हैं, लेकिन यह हमेशा से उपेक्षित रही.
झारखंड में विकास के नाम पर सारा ध्यान खनन और उद्योग पर ही केंद्रित है, जबकि यहां की अर्थव्यस्था का आधार कृषि है. यह सहजीविता की अर्थव्यस्था है, यानी खेती और जंगल साथ-साथ. यहां के लोग वर्ष में आधा समय खेतों में बिताते हैं और आधा समय जंगल में. जंगलों को सरकार द्वारा ठेके पर देने के बाद से ही यहां के सहजीवी जीवन में संकट उत्पन्न होना शुरू हो गया था.
दूसरी ओर जंगलों से प्राप्त उत्पाद के विपणन के लिए सरकार की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं हुई. यहां अब भी सखुआ, महुआ, डोरी, कुसुम, चिरौंजी, आम, इमली, केंदु, बड़ी मात्रा में उत्पादित होता है. इन वन उत्पादों की मांग बाहर के बाजारों में बहुत ज्यादा है.
विपणन की व्यवस्था न होने के कारण ये उत्पाद स्थानीय हाट में सस्ते दामों में बिक जाते हैं. यही हाल कृषि का भी है. विकास योजनाओं के नाम पर जहां भी कारखाने लगे, जहां भी खदान खुले वहां से विस्थापित आबादी को या उसके आस-पास की आबादी को ठेके पर मजदूरी करने के लिए विवश छोड़ दिया गया.
उनकी आधरभूत जीवन संरचना के लिए कोई कारगर योजना नहीं बनायी गयी. आज झारखंड से देश को खनन इत्यादि से अरबों का राजस्व मिलता है, लेकिन उसकी नाक तले आम लोगों की विवशता की सबसे बड़ी वजह है कि सरकारी नीतियों में कृषि और जंगल लोगों के जीवन का आधार नहीं, बल्कि उद्योगों और धनपशुओं के लिए खुली चारागाह हैं. इस मुद्दे को केंद्र हो, या प्रदेश की हो, किसी भी सरकार ने बहस के केंद्र में नहीं लाया.
सदन में कभी इस बात पर चर्चा तक नहीं होती कि कोलियारी, किरीबुरू, चिड़िया, जादूगोड़ा जैसे माइंस से अरबों का राजस्व वसूला जाता है, लेकिन क्यों वहीं की दलित-आदिवासी-मूलवासी जनता भयानक उपेक्षा का शिकार है? क्यों बोकारो स्टील प्लांट, एचइसी और खदानों के आस-पास की हजारों एकड़ भूमि असिंचित और बंजर अवस्था में छोड़ दी गयी है? दुर्भाग्य कि खुद झारखंड के विधायक, सांसद जो इन्हीं क्षेत्रों से चुनेजाते हैं, इस पर बात करना तक उचित नहीं समझते. इन्हीं का दुष्परिणाम है झारखंड से पलायन और मानव तस्करी.
जिस दार्शनिक और सांस्कृतिक भावभूमि के साथ झारखंड आंदोलन के लोगों ने नि:स्वार्थ कुर्बानियां दी थीं, उससे हजारों कोस दूर है आज का झारखंड. दिकुओं, नवबाजारवादी शक्तियों और स्थानीय बिचौलियों के त्रिशंकु की गिरफ्त में झारखंड की सहजीविता और सह-अस्तित्व का दम घुट रहा है. बाजारवादी दबाव में झामुमो, आजसू और अन्य स्थानीय राजनीतिक दल आज इतने दिग्भ्रमित हैं कि इन्हें झारखंडी अस्मिता के लिए कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा है.
कांग्रेस अपनी नीतियों में दिल्ली के इशारे से कभी मुक्त हो ही नहीं पायी, भाजपा तो झारखंडी सह-अस्तित्व को हिंदुत्व के रंग में रंग देना चाहती है. जिसे मैं त्रिदेव कह रहा हूं वह इन्हीं सबका घोल है. इनके द्वारा अपने हितों और वर्चस्व को कायम रखने के लिए जिस तरह की कूटनीति और साजिश होती है, उसे झारखंड की जनता सिर्फ सरकार के गिरने और बनने के रूप में ही देख पाती है.
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