नयी पीढ़ी और सड़क पर न्याय

बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ जंजीर फिल्म 1973 में रिलीज हुई, बहुत चली, सराही गयी. एक बहस भी चल निकली कि क्या कानून अपने हाथ में लेते हीरो को दिखाना उचित है? पक्ष और विपक्ष में बहस चलती रही. तब छात्र आंदोलन पर भी थे. छात्रों के आक्रोश को ही शायद सलीम-जावेद ने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 9, 2016 5:54 AM
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
जंजीर फिल्म 1973 में रिलीज हुई, बहुत चली, सराही गयी. एक बहस भी चल निकली कि क्या कानून अपने हाथ में लेते हीरो को दिखाना उचित है? पक्ष और विपक्ष में बहस चलती रही. तब छात्र आंदोलन पर भी थे.
छात्रों के आक्रोश को ही शायद सलीम-जावेद ने उठा लिया होगा कि यह अच्छा कमाऊ प्लॉट हो सकता है. प्लॉट सचमुच चल निकला. अमिताभ बच्चन एंग्री यंगमैन को पोर्ट्रे करने के लिए स्थापित हो गये. फिर सलीम-जावेद के अलावा अन्य फिल्म लेखकों ने अमिताभ सहित कई अभिनेताओं के लिए कानून हाथ में लेकर इंसाफ करनेवाले गुस्सैल किरदार को लिखा और रचा. ऐसी फिल्में बनती रहीं और बहुत कुछ चलती भी रहीं. दीवार, कुली, शोले आदि फिल्में बहुत चलीं. दीवार और शोले के डायलॉग तो आज भी मकबूल हैं.
इन फिल्मों में दिखायी जा रही हिंसा और न्याय के तरीके पर सवाल उठते रहे और बहसें होती रहीं. ऐसे प्लॉट के विरोध में कहा गया था कि ऐसी फिल्में समाज को हिंसक बना सकती हैं. पक्ष में तर्क दिया जाता था कि फिल्म से किसी का व्यवहार नहीं बदलता, यह बस देखने-दिखाने की चीज होती है. पक्ष में दूसरी बात यह रखी जाती थी कि समाज में जो कुछ होता है और जो दर्शकों को पसंद है, उसे फिल्मों में दिखाने से कैसे रोका जा सकता है?
यह बहस तब बड़ी तीखी हो गयी थी, जब फिल्मों में धूम्रपान पर रोक लगने की बात उठी थी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तर्क दिया गया था. लेकिन यह भी हुआ कि तूफान फिल्म देख कर कई बच्चों ने फिल्म में अमिताभ बच्चन द्वारा इस्तेमाल किये गये हथियार प्रयोग करके कुछ को घायल भी कर दिया. आज भी जब तब बच्चों द्वारा सुपरमैन या स्पाइडरमैन की नकल करने के समाचार आते रहते हैं.
मैं अब मुद्दे पर आना चाहता हूं. आज जिस तरह से न्याय सड़क पर दिया जाने लगा है, उसमें एंग्री यंगमैन के किरदारवाली फिल्मों का क्या कोई योगदान है और है तो कितना? जावेद अख्तर ने जब ‘लक्ष्य’ फिल्म लिखी थी, तब से मेरे दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि एंग्री यंगमैन किरदारवाली फिल्मों का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए.
‘लक्ष्य’ में जावेद अख्तर ने दिखाया है कि आज का (मतलब तब का) नौजवान भटक गया है. मुझे आश्चर्य हुआ कि जंजीर में हिंसा का रास्ता अपनाने को जायज ठहराने और उसके बाद इस तरह के कथानक का रास्ता खोलने को बाद क्या हो गया कि जावेद अख्तर साहब कहने लगे कि आज का नौजवान भटक गया है? क्या ऐसा नहीं है कि यह एंग्री यंगमैन का किरदार, मैं कहूंगा जिन्न, जब हाथों से निकल गया तब वे चेते?
आज जो लोग भी सड़क पर न्याय करते दिख रहे हैं, उनके लीडर आमतौर पर उस पीढ़ी के हैं, जो एंग्री यंगमैन को देखते-देखते बड़े हुए हैं. और ये लोग सामने खड़ी पीढ़ी को भी ‘आखिरी रास्ता’ की तालीम दे रहे हैं. तभी तो हर जगह सड़क पर न्याय देती भीड़ नजर आ रही है.
आज सड़क के न्याय और दबंग या सिंघम में कोई अंतर नजर नहीं आता. लोगों को इतनी पसंद आती हैं कि ऐसी फिल्मों के दो-दो संस्करण जारी करना पड़ता है. ‘लक्ष्य’ फिल्म की एक और बात गौर करने के काबिल है कि भटके हुए नौजवान को अपना लक्ष्य सेना में जाकर मिलता है. आश्चर्य होता है कि आज देश के प्रति प्रतिबद्धता का पैमाना सेना में सेवा करना हो गया है.
यह बात जरूर है कि सेना में कौन जाता है और सेना में जाने को महिमामंडित कौन करता है, यह बात फिल्म में स्पष्ट नहीं की गयी. फिर भी लगता है कि यह बात समाज के मन में बहुत पहले से खदबदा रही थी, लेकिन अभिव्यक्ति अब हो पा रही है. यह फिल्मों का एक दूसरा पहलू है कि क्या फिल्में समाज के मन को समय से पहले पढ़ना भी जानती हैं? अगर हां, तो इसे स्पष्ट क्यों नहीं करती है, जिससे समाज समय रहते उपयुक्त कदम उठा सके.
दूसरी बात, एंग्री यंगमैन का जो किरदार रचा गया वह खलनायक को छोड़ता नहीं है, उसे क्रूरता से मारता है. शोले उसकी पराकाष्ठा थी. अपराधी को मारने के लिए पर्सनल हत्यारे रिक्रूट भी किये गये थे उस फिल्म में. आज सड़क पर न्याय देनेवाले उसी प्रवृत्ति से ग्रसित प्रतीत होते हैं. पुरानी फिल्म ‘राम और श्याम’ में खलनायक को पश्चात्ताप करते दिखाया गया. आखिरी बार ऐसा हाल में अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म ‘इंटरटेनमेंट’ में दिखा था.
हालांकि फिल्मों और समाज में लोगों के व्यवहार में इतना घालमेल है कि आसानी से समझ में नहीं आता कि कौन किसका नकल कर रहा है. लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि सड़क पर और फिल्मों में किरदारों और उनके व्यवहार के बीच की विभाजन रेखा अब मिटती नजर आ रही है.
और यह सब मनोरंजन के नाम पर परोसा जा रहा है, जिसे लोग हाथों-हाथ ले लेते हैं- करोड़ों का टिकट खरीद कर. और, घर के अंदर जो हो रहा है वह क्या है? चैनलों पर दिन रात चलनेवाले सास-बहू की साजिशवाले सीरियल घर के अंदर के तमाम रिश्तों की ‘डॉक्टरिंग’ करते हुए क्या नया कुत्सित नहीं रच रहे हैं?
शोध समाज के न जाने किन-किन पहलुओं पर किया जा रहा है. फिल्म और सीरियल धीरे-धीरे अपने घटियापन का घुन समाज में भेज रहे हैं और हमारा मनोरंजन हो रहा है! अच्छी फिल्में और अच्छे सीरियल का अकाल है. अच्छी फिल्में बन तो रही हैं, लेकिन समाज तक उनका पहुंच पाना मुश्किल है. सीरियल तो अच्छा होना भूल ही गये हैं. हम कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि चैनलों का नियंत्रण हमारे पास नहीं है.
तो अब छात्र और समाजशास्त्री इस पर भी पीएचडी करें कि एंग्री यंगमैन कैरेक्टर ने क्या हमारे व्यवहार को प्रभावित किया है? आज हमारी और सामने खड़ी नयी पीढ़ी को सड़क पर न्याय देने की प्रवृत्ति कहीं उसी किरदार से तो नहीं मिली है? और एंग्री यंगमैन की भूमिका इस नजरिये से भी देखी जानी चाहिए कि इस किरदार के जन्म के बाद जल्द ही देश में इमर्जेंसी लगा दी गयी थी. दूसरी ओर घरों में बढ़ते आडंबर और घरेलू हिंसा के कारण क्या सीरियल नहीं हैं?

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