एमसीआइ पर सवाल

बाड़ जब खुद ही खेत खाने लगे तो कोई क्या करे? शीर्ष स्तर पर होनेवाले भ्रष्टाचार के समाधान का कोई भी प्रयास इस यक्ष प्रश्न पर आकर अटक जाता है. अक्सर दोष नियमों में खोजा जाता है. कहा जाता है कि नियम और उसके अनुसार बना ढांचा तो दुरुस्त है, लेकिन ढांचे के भीतर जिम्मेवारी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 10, 2016 12:52 AM

बाड़ जब खुद ही खेत खाने लगे तो कोई क्या करे? शीर्ष स्तर पर होनेवाले भ्रष्टाचार के समाधान का कोई भी प्रयास इस यक्ष प्रश्न पर आकर अटक जाता है. अक्सर दोष नियमों में खोजा जाता है.

कहा जाता है कि नियम और उसके अनुसार बना ढांचा तो दुरुस्त है, लेकिन ढांचे के भीतर जिम्मेवारी के निर्वाह में लगा व्यक्ति नैतिक तौर पर किंचित खोटा है, इस कारण शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार हो रहा है. बरसों से विवाद में चले आ रहे मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) के फिलहाल के कामकाज के आधार पर उसके बारे में ये दोनों बातें कही जा सकती हैं. सन् 1935 से कायम इस संस्था को देश में मेडिकल की शिक्षा के मामले में एकसारता और उच्च गुणवत्ता बनाये रखने की जिम्मेवारी सौंपी गयी है. मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित विभिन्न योग्यताओं को प्रमाणीकृत करने के अतिरिक्त मेडिकल शिक्षा के संस्थानों को मान्यता देने, चिकित्सा-कर्म में लगे लोगों के पंजीयन और चिकित्सा-जगत में होनेवाली गड़बड़ियों को रोकने के लिए निगरानी का जिम्मा भी इसके पास है.

लेकिन, जिम्मेवारी के निर्वाह में यह संस्था किस हद तक असफल रही है, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2010 में इसके अध्यक्ष केतन देसाई को सीबीआइ ने भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया, लेकिन एमसीआइ डाॅक्टर देसाई का लाइसेंस तक निरस्त नहीं कर पायी, क्योंकि उनका पंजीयन गुजरात स्टेट मेडिकल काउंसिल के द्वारा हुआ था. डाॅक्टर देसाई बाद में एमसीआइ के सदस्य के रूप में भी बहाल हो गये, क्योंकि गुजरात यूनिवर्सिटी की सीनेट ने उन्हें एमसीआइ के लिए नामित कर दिया. संसद की स्थायी समिति ने एमसीआइ की इन्हीं विसंगतियों का संज्ञान लेते हुए कहा है कि अगर देश में जारी चिकित्सा व्यवस्था को बदहाली से बचाना है, तो फिर एमसीआइ के ढांचे में फौरी तौर पर बुनियादी बदलाव के सिवा कोई चारा नहीं है.

समिति ने एक तो मेडिकल काउंसिल एक्ट 1956 को पुराना मान कर नया कानून लाने की बात कही है, साथ ही एमसीआइ के कामकाज को दो हिस्सों- मेडिकल की शिक्षा की गुणवत्ता का सुनिश्चय और देश में जारी चिकित्सा-कर्म की निगरानी, में बांटने का समाधान सुझाया है. देखनेवाली बात होगी कि कानून के बदलाव और जिम्मेवारियों के बंटवारे वाला यह समाधान किस सीमा तक स्वास्थ्य के मद पर सबसे कम खर्च करनेवाले बड़े देशो में शुमार भारत के लचर चिकित्सा ढांचे को लोगों की नजर में विश्सनीय बना पाते हैं.

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