दलों के लिए चिंता का विषय है ‘आप’

।। रविभूषण।।(वरिष्ठ साहित्यकार)देश के राजनीतिक दल न तो अपने गिरेबानों में झांकते हैं और न सोचने का काम करते हैं. नतीजा दिल्ली विधानसभा का चुनाव है, जिसने कांग्रेस और भाजपा सहित कई क्षेत्रीय दलों की भी नींद उड़ा दी है. उन्हें अपने-अपने गिरेबानों में झांकने और सोचने को विवश कर दिया है. ‘आम आदमी पार्टी’ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 23, 2013 4:39 AM

।। रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
देश के राजनीतिक दल न तो अपने गिरेबानों में झांकते हैं और न सोचने का काम करते हैं. नतीजा दिल्ली विधानसभा का चुनाव है, जिसने कांग्रेस और भाजपा सहित कई क्षेत्रीय दलों की भी नींद उड़ा दी है. उन्हें अपने-अपने गिरेबानों में झांकने और सोचने को विवश कर दिया है. ‘आम आदमी पार्टी’ के राजनीतिक प्रयोग ने अब तक जारी राजनीतिक परंपरा के समक्ष कई सवाल खड़े कर दिये हैं. राजनीति, राजनीतिक पार्टी और राजनेता का मुख्य कार्य क्या है? जाति-धर्म की राजनीति हो या जोड़-तोड़-गंठजोड़ की, समाज को इससे क्या हासिल होता है? लंबे अरसे बाद चुनावी राजनीति में एक नयी हवा बही है, जिसे पहले के किसी भी राजनीतिक-चुनावी रूप से नहीं जोड़ा जा सकता. मंडल-कमंडल की राजनीति लंबे समय तक चली. किसी भी राजनीतिक दल ने महंगाई और भ्रष्टाचार को केंद्रीय मुद्दा न सही, बड़ा मुद्दा भी नहीं बनाया. जनता सर्वाधिक इससे प्रभावित होती है. भारतीय चुनावी राजनीति में परिवर्तन की आवश्यकता थी और ‘आप’ फिलहाल बदलाव की राजनीति को प्रमुखता दे रही है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे किसी भी पार्टी के पक्ष में नहीं हैं. इसने कांग्रेस का सर्वाधिक नुकसान किया. 15 वर्ष तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित अरविंद केजरीवाल से हार गयीं. मतदाताओं ने भाजपा को भी कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देखा, उसे चार सीटें कम देकर सोचने को मजबूर किया. ‘आप’ में मतदाताओं ने भरोसा जताया है, पर उसे भी बहुमत नहीं दिया.

त्रिशंकु विधानसभा या संसद का सामान्य अर्थ यह है कि जनता को किसी भी दल में पूर्ण आस्था नहीं है. उसका प्रत्येक दल से मोहभंग हो चुका है. उसके समक्ष किसी न किसी दल को वोट देने की मजबूरी है. कांग्रेस और भाजपा में कोई भिन्नता नहीं है. सभी राजनीतिक दलों के क्रिया-कलाप लगभग एक से हैं. क्षेत्रीय दलों के कामकाज और उनके तौर-तरीके भी जनता देख चुकी है. ‘आप’ में उसे कुछ नवीनता और भिन्नता दिखायी दी. युवाओं, अधेड़ों और बुजुर्गो से निराश होकर नवजात शिशु को उम्मीद से देखने के पीछे सामान्य व्यथा नहीं होती. ‘आप’ ने राजनीतिक संस्कृति बदल दी है. उसने राजनीति के धुरंधरों, खिलाड़ियों और शातिरों को सोच-विचार का एक अवसर दिया है. अभी तक राजनीति मुद्दा आधारित नहीं थी. राहुल बनाम मोदी से क्या सचमुच कुछ हासिल हो सकता है? संभव है, अब मोदी बनाम केजरीवाल की भी चरचा चले. व्यक्ति आधारित राजनीति एक सोची-समझी चाल है, जो बड़े प्रश्नों और मुद्दों को दरकिनार करती है.

‘आप’ की जीत को वेद मेहता और मेघनाद देसाई एक ‘सुनामी’ के रूप में देखते हैं. अब पक्ष से अधिक विपक्ष महत्वपूर्ण है. ‘आप’ क्षेत्रीय दल है, जिसने यह सिद्ध किया है कि ‘कमल’,’हाथी’ से अधिक महत्वपूर्ण ‘झाड़ू’ है, जो गंदगी बुहारने के काम आती है. बिना झाड़ू का कोई घर नहीं होता. घर की गंदगी हर रोज हटायी जाती है, पर राजनीति की गंदगी पांच वर्ष में केवल एक बार चुनाव के दिन. ‘आप’ की तुलना तेदेपा, अगप, तृणमूल कांग्रेस आदि क्षेत्रीय दलों से नहीं की जा सकती. प्रश्न राजनीतिक दिशा का है. पहली बार ‘आप’ ने कांग्रेस और भाजपा को एक समान कहा और राजनीतिक विकल्प की बात कही. चुनावी राजनीति में चुनाव पूर्व या चुनाव पश्चात तीसरे मोरचे की बात की जाती रही है. तीसरे मोरचे में शामिल प्रत्येक दल ने समय-समय पर कांग्रेस और भाजपा का समर्थन किया है. कभी इधर, कभी उधर की राजनीति अवसरवाद को बढ़ावा देती है. ऐसी राजनीति का जनता से संबंध नहीं होता. ‘आप’ ने घर-घर जाकर जनता से संबंध स्थापित किया. चार दिल्लीवासियों में से एक ‘आप’ के साथ है. इसे 27 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं. राजनीति में पारदर्शिता, शुचिता, विश्वसनीयता का अभी तक जो अभाव था, उसे दूर करने में यह पार्टी लगी हुई है.

क्या केजरीवाल को ‘आधुनिक भारत के क्रोध और आदर्श’ के रूप में देखा जाना चाहिए? भारत बदलाव के लिए बेचैन है. कोई एक ‘मसीहा’ यह कार्य नहीं कर सकता. स्वतंत्र भारत जिन नीतियों पर चल कर आज तक पहुंचा है, उन नीतियों पर और विशेषत: ‘उदारवादी अर्थव्यवस्था’ एवं कॉरपोरेट जगत पर पुनर्विचार की जरूरत इसलिए है कि इससे सभी भारतीय जनों का भला नहीं हो सकता. केजरीवाल ने अभी केवल एक धक्का दिया है. इस व्यवस्था को ध्वस्त कर एक नयी व्यवस्था लाने की उनमें क्षमता नहीं है. अर्थनीति, कॉरपोरेट, विदेशी नीति, उद्योग नीति और सांप्रदायकिता आदि पर उनके विचार सामने नहीं आये हैं. दिल्ली में कांग्रेस को लगभग ध्वस्त करने और भाजपा को सत्तासीन होने से रोकने में उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिली है. सात हजार से अधिक ‘आप’ के समर्पित-प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर सवेरे छह बजे से रात के 11 बजे तक प्रचार किया, जो अपने में एक बड़ी बात इसलिए है कि सभी राजनीतिक दलों का यह जन-संपर्क अभियान समाप्त हो चुका था. जनता को हर मामले में भागीदार बनाना एक बड़ी परिघटना है. विधायकों की दल-बदली और खरीद-फरोख्त पर भी दिल्ली में ही सही, अल्प विराम लगा है. भारतीय राजनीति के विशेषज्ञों-विेषकों के लिए ‘आप’ एक झटके की तरह है. इस झटके से सभी राजनीतिक दल चिंतित हैं. अब तक की राजनीति समझौते की राजनीति थी. प्रांतों में मिली-जुली सरकारें समझौतों और लेन-देन के आधार पर गठित होती थीं. शर्तो के साथ समर्थन दिये जाते थे. कांग्रेस ने ‘आप’ को शर्त रहित सरकार बनाने का समर्थन दिया. भाजपा प्रमुख पार्टी होकर भी सरकार बनाने नहीं आयी. अचानक कांग्रेस-भाजपा को अपनी छवि-चिंता हुई है. दोनों ही ‘आप’ को घेरने में लगे हैं. सरकार बनाने के लिए ‘जनमत संग्रह’ पर बहसें जारी हैं.

प्रत्येक आंदोलन चुनाव में शामिल होने के बाद सत्ता-परिवर्तन की कौन कहे, विपक्ष की भी ताकतवर भूमिका में नहीं रहा है. जेपी आंदोलन के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी. उसके बाद का इतिहास हमारे सामने है. माले चुनावी राजनीति में शामिल होने के बाद आज कहां है? अन्ना आंदोलन से निकले केजरीवाल और उनका ‘आप’ दल कल कहां होगा, कोई नहीं जानता. हरियाणा विधानसभा चुनाव में ‘आप’ की बड़ी भूमिका होगी और संभव है पार्टी में अशोक खेमका के आ जाने के बाद उन्हें हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में खड़ा किया जाये. फिलहाल चुनावी राजनीति में ‘आप’ ने एक खलबली पैदा कर दी है. सत्ता पर अंकुश रखने के लिए आज शक्तिशाली विपक्ष की जरूरत है.

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