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होली और लड़कियां

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली में बहुत से महिला संगठनों ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया है कि होली पर गुब्बारों पर प्रतिबंध लगाया जाये. इन संगठनों का कहना है कि होली को लड़कियों को परेशान करने का माध्यम न बनाया जाये. संगठनों की चिंता जायज है. अकसर यह चिंता लड़कियों के घर वाले किया करते […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

दिल्ली में बहुत से महिला संगठनों ने मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया है कि होली पर गुब्बारों पर प्रतिबंध लगाया जाये. इन संगठनों का कहना है कि होली को लड़कियों को परेशान करने का माध्यम न बनाया जाये. संगठनों की चिंता जायज है. अकसर यह चिंता लड़कियों के घर वाले किया करते थे. जिस होली को अकसर फागुन की विदाई, रंगों के उल्लास और भाईचारे की तरह देखा जाता है, वही होली लड़कियों के लिए ढेर सारी आफत लेकर आती है.

होली के बहाने अकसर लड़कियों और महिलाओं को निशाने पर लिया जाता है. शोहदे ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं. लड़कियों को छूने, उन्हें गले लगाने, उनके गाल रंगने और उससे भी ज्यादा उनकी मांग में सिंदूर की तरह लाल गुलाल भर कर इशारों ही इशारों में उसे पत्नी बता कर, मजे लूटते हैं.

कीचड़, मिट्टी में उन्हें नहलाना तो होता ही है. यह सब मासूमियत और त्योहार की मस्ती के रूप में किया जाता है. ज्यादा बात बढ़े तो मजाक का बहाना करके टाल दिया जाता है. इसीलिए शायद लड़कियां होली से थरथराती हैं. उनके बाहर जाने पर घर वाले पाबंदी लगा देते हैं.

वे स्कूल, काॅलेज भी नहीं जा पातीं. क्योंकि वहां भी इसी प्रकार के खतरे मंडराते रहते हैं. और कुछ नहीं तो लड़कियों का लड़कों के साथ नाम जोड़ कर इतने घटिया पंफलेट छापे जाते हैं कि शर्म आती है. वह भी हंसी ठिठोली के नाम पर. ऐसी खबरें भी आती रही हैं कि कई बार बदला लेने के लिए उनके चेहरे पर तेजाब तक लगा दिया जाता है. इसीलिए लड़कियों के घर वालों की कोशिश रहती है कि होली पर लड़कियां घर से ही न निकलें.

होली को प्रेम, भाईचारे और मेल-मिलाप का त्योहार बताया जाता है. कोई बताये कि जिस त्योहार को मौज-मस्ती का माना जाता है, लड़कियों पर आखिर वह कहर की तरह क्यों टूटता है? लड़कियों की यह मुसीबत आज से नहीं है. विश्वास न हो तो बीसवीं सदी की शुरुआत में लिखी स्फुरणा देवी की किताब- अबलाओं का इंसाफ पढ़ लीजिए. इसमें उन्होंने होली का ऐसा वर्णन किया है कि पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

ब्रज प्रदेश की होली और खास तौर से बरसाने की होली का जिक्र बहुत रस लेकर किया जाता है. बताया जाता है कि दूर-दूर से यहां लोग इस होली को देखने आते हैं. यह लेखिका भी इसी प्रदेश से आती है.

यकीन मानिए, बचपन से लेकर आज इस उम्र तक यह कभी होली खेलने की हिम्मत नहीं जुटा पायी. जो कुछ देखा सो घर की खिड़कियों पर पड़े पर्दों के पीछे छिप कर या झरोखों से देखा. लोग घर के सामने आवाजें लगा-लगा कर चले जाते थे, मगर कभी बाहर निकलना नहीं हुआ. बचपन में औरतों को छेड़खानी करनेवाले दृश्य, देवर-भाभी के इस अवसर पर किये गये वे अश्लील मजाक भुलाये नहीं भूलते.

कई बार लगता है कि प्रकृति सचमुच होली के अवसर पर रंगों की कोई कमी नहीं छोड़ती. जब होली आती है, बाग-बगीचे तरह-तरह के फूलों से रंगीन हो उठते हैं. जिन पलाश या टेसू के फूलों से होली खेलने का रिवाज रहा है, उन पलाश वनों को भी देखा है. लाल, नारंगी रंगों के फूलों से पूरा जंगल इतना लाल हो जाता है, जैसे जंगल में आग लग गयी हो.

इसीलिए अंगरेजी में इसे ‘फ्लेम आॅफ द फाॅरेस्ट’ कहा जाता है. बांग्ला के महान उपन्यासकार विभूतिभूषण ने इसका जिक्र अपने उपन्यास ‘आरण्यक’ में भी किया है.

तो होली के रंगों को मटमैला क्यों करें. इस त्योहार को मनाने का ढंग ऐसा क्यों न हो कि लड़कियां भी बेखौफ इसका आनंद ले सकें.

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