सही दिशा तो दीजिए तसवीर बदलेगी
।। शैलेश कुमार।। (प्रभात खबर, पटना) पटना का बोरिंग रोड. शहर के सर्वाधिक चहल-पहलवाले इलाकों में से एक. शाम के साढ़े सात बज रहे थे. स्कर्ट पहने एक युवती वहां से गुजरी. उसके पीछे चल रहे दो लोगों में से एक ने कहा, देखिए सिंह जी. आज की यंग पीढ़ी. संस्कार नाम की कोई चीज […]
।। शैलेश कुमार।।
(प्रभात खबर, पटना)
पटना का बोरिंग रोड. शहर के सर्वाधिक चहल-पहलवाले इलाकों में से एक. शाम के साढ़े सात बज रहे थे. स्कर्ट पहने एक युवती वहां से गुजरी. उसके पीछे चल रहे दो लोगों में से एक ने कहा, देखिए सिंह जी. आज की यंग पीढ़ी. संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं बची. अगले ही पल वही लड़की एक बेहद बुजुर्ग महिला को रास्ता पार कराती दिखी. भिखारी-सी दिखनेवाली महिला ने उसे आशीर्वाद दिया. उस लड़की ने महिला को प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गयी. यह देख मन में ख्याल आया कि संस्कार की पहचान क्या पहनावे से होती है?
करीब सात साल पुरानी एक घटना की याद अचानक जेहन में ताजा हो उठी. बेंगलुरु में फरवरी की एक शाम. हल्की ठंड थी. कॉलेज लाइब्रेरी से बाहर निकला और बगलवाली गली में एक दोस्त के साथ आगे बढ़ गया. दो कदम बढ़े ही थे कि सड़क किनारे दयनीय हालत में पड़ी एक वृद्धा मिल गयी. मालूम हुआ कि उसके दोनों हाथ और एक पैर टूटे हैं. नाम मुनियम्मा था. उम्र 91 वर्ष की. बेटियों ने घर से बाहर फेंक दिया था. चार दिनों से सड़क पर ही पड़ी थी. हमने तुरंत कुछ दोस्तों को फोन करके बुलाया. महिला की बेटियों से बात की. वे रखने को राजी नहीं हुईं, तो घर के बाहर ही बांस गाड़ वृद्धा के रहने को जगह बनायी. कुछ लड़कियां हॉस्टल से अपने कपड़े, तो कुछ बिछाने को चादर और ओढ़ने को कंबल ले आयीं. कई लड़कियों ने उसका मल-मूत्र साफ करने और नहलाने की जिम्मेवारी संभाल ली. सुबह, दोपहर, शाम और रात का भोजन पहुंचने लगा.
कभी लड़के कॉलेज से लाये, तो कभी लड़कियों ने हॉस्टल से छिपा कर बचे हुए अपने भोजन से. करीब 25 दिनों तक स्टूडेंट्स ने दिन-रात मुनियम्मा की सेवा की. तबीयत बिगड़ने पर अस्पताल ले गये. वापस लाये. और एक सुबह वह हमें छोड़ इस दुनिया से चली गयी. हम में से हर एक इतना रोया जैसे कि कोई अपना बिछुड़ गया हो. कोई क्लास में, तो कोई लैब में और कोई रास्ते में चलते वक्त भी अपने बहते आंसुओं को रोक नहीं सका. जब तक मुनियम्मा जिंदा थी, न तो उसकी बेटियों और न ही किसी रिश्तेदार ने उसकी खबर ली, पर मरने के बाद न जाने कहां से रिश्तेदारों की फौज जमा हो गयी.
जिंदा रहने पर खाने को सूखी रोटी तक को किसी ने नहीं पूछा, लेकिन मरने पर उसे दूध से नहलाया गया. जिंदा इनसान की लोगों को फिक्र नहीं और मरने पर इतनी खातिरदारी? जिन्होंने मुनियम्मा को इतने दिन जिंदा रखा वे उसी युवा पीढ़ी का हिस्सा थे, जो फैशनवाले और छोटे कपड़े पहनते हैं. पार्टी करते हैं. जिन पर सामाजिक जिम्मेवारियों के प्रति गंभीर नहीं होने का आरोप लगता है. दुनियावालों का यह सोच पूरी तरह से गलत नहीं हो सकता, लेकिन इस सोच में एक सोच जोड़ देना चाहिए. सिर्फ आलोचना मत कीजिए. युवाओं को सही दिशा में मोड़िए, देश और समाज की तसवीर बदल जायेगी. युवा एक बड़ी ताकत है.