हिंदी में लेखक कौन?

प्रभात रंजन कथाकार एक पत्रकार मित्र ने अपना दर्द बयान किया कि हमको तो कोई लेखक ही नहीं मानता. दो कहानी संग्रह छप चुके हैं, पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं नियमित छपती रहती हैं, लिखते-लिखते दस साल से ऊपर हो गये, तब भी लेखकों की सूची में मेरा नाम कहीं नहीं आता. उनकी इस बात से मन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 31, 2016 6:05 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
एक पत्रकार मित्र ने अपना दर्द बयान किया कि हमको तो कोई लेखक ही नहीं मानता. दो कहानी संग्रह छप चुके हैं, पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं नियमित छपती रहती हैं, लिखते-लिखते दस साल से ऊपर हो गये, तब भी लेखकों की सूची में मेरा नाम कहीं नहीं आता.
उनकी इस बात से मन में यह सवाल आया कि आखिर हिंदी में लेखक होना क्या होता है? क्या लेखक होने के लिए कुछ खास करना होता है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि मैंने हिंदी के अलावा अन्य किसी भाषा में यह नहीं देखा है कि लेखकों को उनके लेखन के इतर पहचानों से भी जाना जाता है. मसलन, वह अफसर है, पत्रकार है, इंजीनियर है, आदि.
फिर ऐसी पहचान वाले लोगों को लेखक के रूप में खारिज करने का खेल शुरू हो जाता है, जो मूलतः हिंदी वालों की तरह हिंदी विभागों से न निकला हो, जिसके पास किसी बड़े आलोचक, लेखक का सर्टिफिकेट न हो. बड़ी बात यह है कि इसमें पाठकों का कोई मोल नहीं होता, पाठक किसी भी किताब को कितना ही पसंद करें, उसके लिए पुस्तकालयों में जगह तब तक नहीं बन पाती है, जब तक कि वह लेखन की हिंदी विभागीय परंपरा से न गुजरा हो.
दिल्ली विश्वविद्यालय का उदहारण है, जहां पाठ्यक्रम में लोकप्रिय साहित्यकारों के उपन्यास शामिल तो किये गये हैं, लेकिन अभी भी पुस्तकालयों में उनकी खरीद इसलिए नहीं होती, मानो वे पाप के साहित्य हों.
इन हिंदी विभागों ने हिंदी की एक चौहद्दी बना दी है और उसके बाहर कांटों वाली बाड़ भी लगा दी है, जिसमें एंट्री तभी मिलती है, जब तक साहब दरवाजा न खोलें. बरसों से हिंदी के साहित्यिक परिसर को बंद खिड़की, बंद दरवाजों वाला परिसर बना कर रखा गया है. जिसके बाहर अघोषित रूप से प्रवेश निषेध लिखा रहता है. जो इस परिसर के बाहर लेखन करते हैं, उनको अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है.
तर्क यह दिया जाता रहा कि समाज को सही दिशा दिखाने के लिए ऐसे साहित्य का होना बहुत आवश्यक है, इसलिए बिना चेकिंग के इस परिसर में एंट्री नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन इसका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि हिंदी हिंदी विभागों के बाहर सिमटती गयी. आज मूर्धन्य लेखक मनोहर श्याम जोशी जी की पुण्यतिथि है, उनकी एक बात याद आती है. वे कहा करते थे कि जिन लेखकों ने हिंदी के लेखन को नयी पहचान दी, बड़ी पहचान बनायी, उनमें से ज्यादातर हिंदी विभागों से नहीं आते थे.
असल में इस तरह की मानसिकता के कारण हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में देखा जाने लगा, जिसको पढ़ने-समझने की योग्यता हिंदी विभागों के बाहर के लोगों में नहीं होती है.
उनमें इसकी सलाहियत नहीं होती है कि वे गंभीर साहित्य की समझ बना सकें. इस मानसिकता के कारण हिंदी विभागों के बाहर हिंदी का दायरा संकुचित होता गया, कुनैन की गोली की तरह पाठक उससे दूर होते गये. हिंदी के लेखकों की पहचान के बने बनाये सांचों में फिट न करने के लिए इस परिसर के लेखकों को बाहरी बताया जाता रहा. इसका जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ, वह यह हुआ कि हिंदी पट्टी में जब साक्षरता बढ़ी, तो उनमें हिंदी के साहित्य की जगह चेतन भगत जैसे लेखकों का साहित्य लोकप्रिय होता गया.
क्या चेतन भगत की व्याप्ति का यह बड़ा कारण नहीं है कि हमने बड़े पैमाने पर हिंदी में तथाकथित ‘बाहरी’ लेखकों के साहित्य को मान्यता नहीं दी? जिस तरह पाठक समाज के किसी भी वर्ग से आता है, उसी तरह लेखक भी समाज के किसी भी वर्ग से आ सकता है. न जाने हिंदी के आचार्यों को यह बात कब समझ में आयेगी?

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