कहां गये बंगाल के वे ”भद्रलोक”!
अनुपम त्रिवेदी राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक अभी कुछ दिन पहले जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक चुनावी सभा में कहा कि उनकी जान को खतरा है, तो राष्ट्रीय मीडिया ने इसे संज्ञान में नहीं लिया. स्थानीय स्तर पर भी लोगों की मामूली प्रतिक्रिया हुई और इसे एक राजनीतिक वक्तव्य की तरह देखा गया. पर […]
अनुपम त्रिवेदी
राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषक
अभी कुछ दिन पहले जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक चुनावी सभा में कहा कि उनकी जान को खतरा है, तो राष्ट्रीय मीडिया ने इसे संज्ञान में नहीं लिया. स्थानीय स्तर पर भी लोगों की मामूली प्रतिक्रिया हुई और इसे एक राजनीतिक वक्तव्य की तरह देखा गया. पर एक मुख्यमंत्री का यह कहना कि उसके अपने ही राज्य में उसकी जान को खतरा है, एक अत्यंत गंभीर घटना है. ऐसा क्या हुआ है बंगाल में कि आज प्रदेश का मुख्यमंत्री ही असुरक्षित है.
दरअसल, प्रदेश में हिंसा आज आम बात हो गयी है. पूरा पश्चिम बंगाल बम, बारूद और आतंक की बड़ी प्रयोगशाला बन गया है. चुनाव आते-आते ये सारे प्रयोग धरातल पर आ जाते हैं. आज पश्चिम बंगाल की राजनीति- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ पर आकर टिक गयी है. जिस राजनीतिक पार्टी के पास जितने ज्यादा गुंडे हों, वही पार्टी चुनाव जीतती है. पहले माकपा ने यही किया और जब 10 वर्षों में तृणमूल कांग्रेस का कैडर टक्कर लेने लायक हुआ, तो उसने माकपा को धूल चटा दी. आज तृणमूल का डर ऐसा है कि कल के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी माकपा और कांग्रेस आज साथ मिल कर तृणमूल कांग्रेस से लोहा लेने की तैयारी कर रहे हैं.
याद कीजिए, यह वही बंगाल है, जो कभी देश की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र हुआ करता था. एक समय था जब कोलकाता ही नहीं, संपूर्ण बंगाल में भद्र लोगों- जिन्हें ‘भद्रलोक’ के नाम से जाना जाता है- का वर्चस्व था. यह वह समय था, जब बुद्धिजीविता बंगाल की धाक थी. कहा जाता था कि ‘कोलकता आज जो सोचता है, वह बाकी का हिंदुस्तान दूसरे दिन सोचता है’. संस्कृति, साहित्य और संगीत का मधुर समागम अगर कहीं देखने को मिलता था, तो वह बंगाल में ही मिलता था. कभी अपने बुद्धिबल का लोहा मनवानेवाला बंगाल आज बाहुबल के फेर में पड़ गया है. अब राजनीतिक बहसें वाद-संवाद से नहीं लाठी, डंडों और बमों से तय होती हैं.
अब न केवल राजनीतिक दल एक दूसरे से निपटने को हिंसा का सहारा लेते हैं, जैसा कि पिछले दिनों मुर्शिदाबाद में माकपा और तृणमूल के बीच हुआ, बल्कि अब पार्टियों के आपसी विवाद भी हिंसा से ही हल होते हैं, जो बीरभूम जिले में देखने को मिला, जब तृणमूल के ही दो गुट आपस में भिढ़ गये और उनके बीच जम कर लाठी, गोली और बम चले.
देश की सांस्कृतिक विरासत का केंद्र रहा पश्चिम बंगाल आज राजनीतिक हिंसा का पर्याय बन गया है. बंगाल पुलिस की केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में 2014 के लोकसभा चुनावों में 1,166 हिंसक वारदातें हुई थीं. 2015 में हुए नगर निगम चुनावों में यह आंकड़ा 462 था. अब 2016 के विधानसभा चुनाव में क्या आंकड़ा होगा, यह सोच कर ही मन सिहर उठता है.
राज्य में चुनाव के दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, प्रतिदिन राजनीतिक हिंसा की खबरों में वृद्धि होती जा रही है. घरों में बम बनाये जाने की खबरें आ रही हैं. कभी देश की औद्योगिक क्रांति के भी अगुआ रहे पश्चिम बंगाल में आज भले ही अन्य फैक्ट्रियां बंद हो रही हों, लेकिन वहां बमों के कारखाने घर-घर खुल रहे हैं.
और बम अब सिर्फ घरों में ही नहीं मिल रहे, हाल ही में पश्चिम मिदनापुर के एक किसान को अपना खेत जोतते हुए हथियारों का बड़ा जखीरा मिला, जिसे किसी ने वहां छिपा रखा था. पुलिस की तलाशी में बीरभूम में गौ-शालाओं और झोपड़ियों में छुपाये गये बमों के ढेर मिले.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अभी अपनी हाल की चुनावी सभा में इसका जिक्र करते हुए पूछा कि यह बम किसके लिए बनाये जा रहे हैं? पश्चिम बंगाल से सद्भाव रखनेवाले हर व्यक्ति को इस एक प्रश्न ने उद्वेलित कर दिया है. अब इसका उत्तर तो शायद चुनाव के बाद मिले, पर एक सत्य तो जगजाहिर हो गया है. वह यह है कि अब मौजूदा बंगाल गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर का बंगाल नहीं रह गया है. अब यहां रबींद्र संगीत नहीं गूंजता, बल्कि गुंडों और मवालियों के बम गूंजते हैं.
चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल के इस हालात से पूरी तरह से वाकिफ है. यही वजह कि जहां दूसरे प्रदेशों में चुनाव एक या दो दिन में संपन्न होने हैं, वहीं पश्चिम बंगाल में 294 सीटों के लिए चुनाव 6 चरणों में हो रहे हैं. चुनाव पूर्व ही केंद्रीय सुरक्षा बलों की 200 कंपनियां पूरे प्रदेश में तैनात कर दी गयी हैं. जिस तरह से जगह-जगह फ्लैग मार्च हो रहे हैं, ऐसा लगता है कि चुनाव नहीं, बल्कि यहां कोई युद्ध होनेवाला है.
दिसंबर, 1997 में जब तृणमूल कांग्रेस की स्थापना हुई थी, तब कोलकाता के श्याम बाजार में इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी कोलकाता के भद्रलोक थे.
साहित्य, कला, शिक्षा के क्षेत्र के नामी लोग बहुत आशा और उम्मीद के साथ ममता बनर्जी के साथ खड़े हुए थे. लोगों में कांग्रेस से इतर माकपा के एक विकल्प के लिए उत्साह था. ऐसा ही उत्साह मई 2011 में भी दिखा, जब ममता बनर्जी की पार्टी ने वामपंथी मोर्चे को सत्ता से उखाड़ फेंक कर राज्य की बागडोर संभाली थी. माकपा के गुंडों से तंग लोगों में उम्मीद जगी थी. लगता था अब गुंडाराज खत्म हो जायेगा, पर ऐसा नहीं हुआ. जो गुंडे पहले माकपा सरकार में थे, अब वे तृणमूल में शामिल हो गये हैं. भद्रलोक फिर निराश हो गया है.
उधर प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं में उमड़ी भीड़ से उत्साहित भारतीय जनता पार्टी को अपने लिए संभावना दिख रही है.भाजपा नेतृत्व सोच रहा है कि कम्युनिस्टों और ममता से त्रस्त जनता अब उसे मौका दे देगी. पर शायद वह बंगाल का आज का सच या तो जानता ही नहीं है या जानबूझ कर जानना नहीं चाहता. बंगाल की हिंसक हो चुकी राजनीति में पार्टी का संगठन अभी शैशवावस्था में है और बंगाल के जिस ‘भद्रलोक’ पर उसने आशाएं टिका रखी हैं, वह कहीं दिख नहीं रहा है.
कभी पूरे देश को दिशा दिखानेवाले इन भद्र लोगों की आज सिर्फ भाजपा को ही नहीं, पूरे बंगाल को तलाश है. लेकिन प्रश्न यही है, कहां गये वे ‘भद्रलोक’?