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वेतन में मनमानी वृद्धि
तेलंगाना विधानसभा ने जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते में भारी वृद्धि पर मुहर लगा दी है. विधानसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में गठित समिति ने इसका सुझाव दिया था. अब मुख्यमंत्री को वेतन-भत्ते में मिलनेवाली राशि 4,21,000 रुपये, विधानसभा अध्यक्ष और परिषद् के सभापति के वेतन-भत्ते की राशि 4,11,000 रुपये, मंत्रियों और मुख्य सचेतक की राशि चार लाख […]
तेलंगाना विधानसभा ने जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते में भारी वृद्धि पर मुहर लगा दी है. विधानसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में गठित समिति ने इसका सुझाव दिया था. अब मुख्यमंत्री को वेतन-भत्ते में मिलनेवाली राशि 4,21,000 रुपये, विधानसभा अध्यक्ष और परिषद् के सभापति के वेतन-भत्ते की राशि 4,11,000 रुपये, मंत्रियों और मुख्य सचेतक की राशि चार लाख रुपये, विधायकों और पार्षदों को मिलनेवाली राशि ढाई लाख रुपये होगी.
ऐसे समय में जब राज्य में हाल में अनेक किसानों ने कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या कर ली है और राज्य की आर्थिक विकास की दर भी बहुत संतोषजनक नहीं है, मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने इस वेतनवृद्धि के लिए बढ़ती महंगाई और जन-प्रतिनिधियों के राष्ट्र-निर्माण में लगे होने का तर्क दिया है. विडंबना यह भी है कि तेलंगाना उन राज्यों में से है, जहां राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना में मजदूरों को दी जानेवाली रकम में नये वित्तवर्ष के लिए अत्यंत मामूली वृद्धि की गयी है.
हालांकि जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों में भारी वृद्धि करनेवाला तेलंगाना अकेला राज्य नहीं हैं. पिछले साल दिल्ली में विधायकों के वेतन भत्तों में करीब 400 फीसदी और झारखंड में करीब 80 फीसदी की वृद्धि हुई थी. उत्तर प्रदेश में भी वेतन बढ़ाये गये, जबकि मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में भारी वृद्धि का प्रस्ताव है. पिछले पांच वर्षों में कई अन्य विधानसभाओं में भी यही रवैया देखने को मिला है.
यह ठीक है कि महंगाई और अन्य खर्चों के हिसाब से वेतन एक तय अंतराल पर बढ़ने चाहिए, लेकिन इसमें मनमानापन ठीक नहीं है. हमारे देश में अपने वेतन-भत्ते के बारे में खुद निर्णय लेने का विशेषाधिकार सिर्फ जन-प्रतिनिधियों को है और उनके ऊपर ही शासन की जिम्मेवारी भी है. ऐसे में उनसे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा होना स्वाभाविक है.
संसद से लेकर विधानसभाओं तक में सदस्यों के कामकाज के स्तर को लेकर पिछले कुछ समय से चिंता लगातार बढ़ी है. ऐसे में यह जरूरी लगता है कि प्रतिनिधियों के वेतन और सुविधाओं के बारे में कुछ समुचित मानदंड तय हों. इसके लिए जनता को भी सरकारों, राजनीतिक दलों और निर्वाचित सदस्यों पर दबाव बनाना चाहिए, अन्यथा यह मनमाना रवैया इसी तरह से जारी रहेगा.
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