उम्मीदों को जगानेवाला दौरा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण के साथ ही यह यह स्पष्ट कर दिया था कि विदेश नीति निर्धारण और राजनय के संचालन की जिम्मेदारी अपने हाथ में ही रखेंगे. तब से आज तक उनके कार्यकलाप इस मान्यता को ही पुष्ट करते आ रहे हैं. इससे उनके आलोचकों-खास कर कांग्रेसियों को यह टिप्पणी करने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 4, 2016 12:46 AM

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण के साथ ही यह यह स्पष्ट कर दिया था कि विदेश नीति निर्धारण और राजनय के संचालन की जिम्मेदारी अपने हाथ में ही रखेंगे. तब से आज तक उनके कार्यकलाप इस मान्यता को ही पुष्ट करते आ रहे हैं. इससे उनके आलोचकों-खास कर कांग्रेसियों को यह टिप्पणी करने का मौका मिला है कि उनकी अप्रवासी (गैरहाजिर!) प्रधानमंत्री वाली छवि बन चुकी है अौर स्वदेश की ज्वलंत समस्याअों की तरफ उनका ध्यान कम ही जाता है.

उन पर यह भी आक्षेप लगाया जाता है कि विदेश दौरों में उनकी प्राथमिकता अपने करिश्माई व्यक्तित्व का महिमा मंडन करने की रहती है. घर बैठे इन जलवों का नजारा करनेवाले अपने प्रशंसकों, भक्त मतदाताअों को चमत्कृत करने के चक्कर में वह राष्ट्रहित के संदर्भ में संवेदनशील सामरिक चुनौतियों को भुला देते हैं. मोदी को पदभार संभाले लगभग दो साल हो चुके हैं, पर जब भी वह विदेश यात्रा पर निकलते हैं तो उस दौरे की लाभ-लागत पर सवालिया निशान लगाये जाते हैं. बेल्जियम अौर अमेरिका के ताजा दौरे के बारे में भी यही हो रहा है.

हमारी समझ में इस बार की विदेश यात्रा अौर पिले दौरों में काफी फर्क है. बेल्जियम पर हुए दहशतगर्द हमले के बाद ब्रसेल्स जाने के पूर्वनिश्चित कार्यक्रम पर डटे रह कर मोदी ने न केवल दिलेरी दिखायी है, बल्कि उस आतंकवाद के खिलाफ यूरोप के इसी खतरे से संकटग्रस्त देशों के साथ सहकार की पेशकश भी की है. मोदी का कहना कि बहुत सटीक है कि आतंकवाद से लहूलुहान होने के पहले ही यह बात स्वीकार करने की जरूरत है कि दहशतगर्द सभी के समान रूप से दुश्मन हैं. अपने-पराये की बात आत्मघातक ही सिद्ध होगा. यूरोपीय समुदाय के देश हाल के वर्षों में भारत पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के नाम पर दबाव बनाते रहे हैं. इस बीच जब वह इस्लामी कट्टरपंथ पर काबू पाने अौर घर में घुस आनेवाले शरणार्थियों के कारण अपनी पहचान गंवाने की जटिल चुनौती से जूझ रहे हैं, भारत को अपनी दिक्कतें उनको समझाने का बेहतरीन मौका मिल रहा है.

एक अौर बात का जिक्र जरूरी है. यूरोपीय समुदाय भारत का अव्वल नंबर का आर्थिक साझीदार है. (यह बात दीगर है कि इयू के लिए भारत की अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अहमियत नौवें स्थानवाली है). पूंजी निवेश, तकनीकी हस्तांतरण, स्वच्छ ऊर्जा, पर्यावरण संरक्षण इन सभी क्षेत्रों मे भारत अौर यूरोप के बीच परस्पर लाभदायक रिश्तों को अधिक घनिष्ठ करने की जरूरत भी है, अवसर भी. यूक्रेन में पुतिन द्वारा उत्पन्न संकट के बाद यह संभावना अौर भी बढ़ी है. यूरोप के चोटी के नेताअों से मोदी की मुलाकात जी-20 की बैठकों में हो चुकी है, अतः यह सोचना तर्कसंगत है कि ‘बर्फ पिघलाने’ में देर नहीं लगेगी. जिस राजनयिक ‘बोनस’ का उल्लेख आवश्यक है, वह नेपाल में संविधान निर्माण के मुद्दे पर भारत के नजरिये का अनुमोदन हासिल करना है. इसे कम महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं माना जा सकता.

शोक संतप्त बेल्जियम में इस वक्त माहौल शोर-शराबे वाले प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रायोजित स्वागत समारोहों का नहीं. इससे भी यह आशा जगती है कि भले ही यह दौरा मात्र एक दिन का रहा, इसमें सार्थक आर्थिक राजनय संपन्न हुआ होगा. ब्रसेल्स के बाद मोदी ने वाशिंगटन में परमाण्विक नीति के बारे में गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास किया.

कनाडा के युवा नव निर्वाचित प्रधानमंत्री त्रूदो के साथ बातचीत में उन्होंने कनाडा को स्वाभाविक मित्र बताया. त्रूदो की जीत में भारतवंशी नागरिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनके मंत्रिमंडल में भारतवंशी महत्वपूर्ण पदों पर हैं. यह रिश्ता भावनाअों तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में कनाडा का विशेष स्थान है. परमाण्विक ईंधन आपूर्ति के लिए तो कनाडा महत्वपूर्ण है ही, आज दालों का बड़े पैमाने पर वहां से आयात हो रहा है. भारत के कुशल कारीगरों, डॉक्टरों, पेशेवरों के लिए उस तरह के निषेध प्रतिबंध कनाडा में नहीं हैं, जैसे अमेरिका या अन्यत्र. कनाडा का समाज नस्लवादी भेदभाव से मुक्त वास्तव में समावेशी है. मोदी ने इस बहुपक्षीय परामर्श का लाभ द्विपक्षीय संबंध को पुष्ट करने के लिए किया है.


अभी मोदी दौरे से लौटे भी नहीं कि जुलाई में अफ्रीका दौरों की संभावना की अटकलें आरंभ हो गयी है. देखने लायक बात यह है कि विधानसभा चुनावों के नतीजे इस ‘अति उत्साही गतिशील’ राजनय को कैसे प्रभावित करते हैं?

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

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