व्यसनों से ऊपर उठें आदिवासी

आदिवासी इस देश की मूल पहचान हैं. वे सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उनके साथ साहचर्य स्थापित कर अपना जीवन जीते आये हैं. जैव-विविधता को संजोने में उनका बड़ा योगदान है. आदिवासियों की पहचान जंगल और जमीन से जरूर है, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण उन्हें विस्थापित होना पड़ रहा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 27, 2013 5:13 AM

आदिवासी इस देश की मूल पहचान हैं. वे सदियों से प्रकृति की रक्षा करते हुए उनके साथ साहचर्य स्थापित कर अपना जीवन जीते आये हैं. जैव-विविधता को संजोने में उनका बड़ा योगदान है. आदिवासियों की पहचान जंगल और जमीन से जरूर है, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण उन्हें विस्थापित होना पड़ रहा है. वे खुद को हताश, निराश और शोषित महसूस कर रहे हैं. हालांकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद तो कर रहे हैं, लेकिन अफसोस कि उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह साबित हो रही है.

कभी वे समाज के दबंगों की चाल के मोहरे बने, तो कभी अपनी ही बिरादरी के नेताओं द्वारा शोषित हुए. हाल में विस्थापन जैसी ज्वलंत समस्या में वृद्धि भी उनके लिए चिंता का विषय बन गयी है. आखिर क्यों बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, चांद-भैरव की धरती पर उनके ही वंशज उपेक्षित और शोषित हैं? झारखंड के अलग राज्य बनने के 13 वर्ष बाद भी उनकी स्थिति क्यों नहीं सुधरी, जबकि सभी सीएम और अधिकांश जनप्रतिनिधि आदिवासी ही रहे? इसके कई कारण हो सकते हैं.

लेकिन एक बड़ा कारण यह है कि हमारे आदिवासियों की एक बड़ी आबादी गरीब, अस्वस्थ, बेरोजगार, अशिक्षित और अपने अधिकारों से अनजान है. वे नहीं जानते कि वे भी दीर्घ और उद्देश्यपूर्ण जीवन जी सकते हैं. इस समुदाय के पुरुष दिनभर मेहनत कर चंद रुपये तो कमाते हैं लेकिन शाम को हड़िया-दारू पर उसे स्वाहा कर देते हैं. फिर स्थिति कैसे सुधरेगी? आदिवासियों के लिए अवसरों की कमी नहीं है, बस जरूरत है अपनी पारंपरिक जीवनशैली से ऊपर झांकने की और धुंधली होती प्रकाश की छाया में अपना विराट इतिहास लिखने की.
सुधीर कुमार, हंसडीहा, दुमका

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