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कैंपसों में टकराव का दर्शन

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार लगता है कि केंद्र सरकार के कुछ मंत्रालयों ने साधारण मामलों-विवादों को राष्ट्रीय समस्या बनाने में महारथ हासिल कर लिया है. इसमें मानव संसाधन मंत्रालय सबसे आगे है. उसके ‘कौशल-विकास’ का हाल यह है कि देश के दर्जन से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछले कुछ समय से तनाव, दमन-उत्पीड़न और गुटीय […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
लगता है कि केंद्र सरकार के कुछ मंत्रालयों ने साधारण मामलों-विवादों को राष्ट्रीय समस्या बनाने में महारथ हासिल कर लिया है. इसमें मानव संसाधन मंत्रालय सबसे आगे है. उसके ‘कौशल-विकास’ का हाल यह है कि देश के दर्जन से अधिक उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछले कुछ समय से तनाव, दमन-उत्पीड़न और गुटीय टकराव का माहौल व्याप्त है.
शैक्षिक गुणवत्ता के भारत सरकार के अपने ग्रेडिंग सिस्टम में अव्वल आनेवाले जवाहरलाल नेहरू विवि और हैदराबाद केंद्रीय विवि सहित प्रौद्योगिकी और फिल्म प्रशिक्षण के शीर्ष संस्थानों में हाहाकार सा मचा है.
टकराव की लपटें अब कश्मीर घाटी के श्रीनगर में अवस्थित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआइटी) में भी पहुंच गयी. हर जगह मानव संसाधन मंत्रालय बेवजह भूमिका में है. ज्यादातर मामलों में भाजपा या एबीवीपी एक पक्ष के तौर पर शामिल हैं. व्यापक तौर पर देखें, तो मंत्रालय का पक्ष वही है, जो इन संगठनों का है. शायद समस्या की जड़ यही है.
जेएनयू का सारा विवाद देश-विरोधी नारों को लेकर हुआ था. कुछ विवादास्पद वीडियो सामने आये, जिसके आधार पर संघ-समर्थक नेताओं और संगठनों के अलावा मीडिया के एक हिस्से ने देश के इस सर्वोत्तम विश्वविद्यालय को ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ तक कहा. नारों का सच सामने आ जाने के बाद भी इनमें से किसी ने अब तक जेएनयू को बेवजह बदनाम करने के लिए माफी नहीं मांगी.
यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि चेहरे पर खास ढंग का कपड़ा लगा कर जेएनयू कैंपस में विवादास्पद नारा लगानेवाले वे युवक कौन थे और कहां चले गये? हमारी सरकार और पुलिस ने उन्हें अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया?
हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होने के बावजूद गिरफ्तार नहीं किया गया. लेकिन, इस मामले में प्रतिरोध करनेवाले छात्रों को विश्वविद्यालय के अंदर और मुख्य द्वार के बाहर घसीट-घसीट कर पीटा गया.
कोई जांच नहीं. कोई केंद्रीय टीम यह जानने हैदराबाद नहीं पहुंची कि बच्चों को बेवजह क्यों पीटा गया, लेकिन बीते बुधवार को आनन-फानन में सीआरपीएफ के साथ केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय टीम श्रीनगर पहुंच गयी.
गृह मंत्रालय अलग से इस बात की पड़ताल करा रहा है कि श्रीनगर स्थित एनआइटी में ‘राष्ट्रवादी छात्रों’ के एक हिस्से पर लाठीचार्ज कैसे हो गया या कि भारत-वेस्टइंडीज क्रिकेट मैच के बाद किस तरह की नारेबाजी की गयी? मंत्रालय ने राज्य प्रशासन से इसकी रपट मांगी है.
क्या भाजपा की हिस्सेदारी वाली कश्मीर सरकार इतनी अक्षम है कि इतने सामान्य से मसले को वह हल नहीं कर सकती! दो-दो केंद्रीय मंत्रालय घाटी में क्यों उतर पड़े? ऐसी सक्रियता हैदराबाद, दिल्ली, पुणे, कालीकट, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ और मेवाड़ के छात्रों के पक्ष में क्यों नहीं दिखी? ऐसे ज्यादातर मामलों में केंद्र को उत्पीड़ित छात्रों के हमलावरों के पक्ष में खड़े देखा गया. मेवाड़ में दर्जनभर से अधिक कश्मीरी छात्र निलंबित हुए, इससे पहले वे पीटे गये.
कभी उन पर बीफ खाने तो कभी क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान-समर्थन में नारे लगाने के आरोप लगे. कुछ समय पहले हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़नेवाले कश्मीरी छात्रों पर इसी तरह के आरोप मढ़े गये. इनमें कइयों की पिटाई की गयी. कुछ हिरासत में भी लिये गये. तब ये केंद्रीय मंत्रालय कहां थे?
एनआइटी, श्रीनगर में 70 फीसदी से ज्यादा छात्र कश्मीर घाटी से बाहर के हैं. साल 2007 से मार्च, 2016 के बीच वहां कभी कोई तनाव या गुटीय टकराव नहीं देखा गया. परिसर में न कभी पुलिस घुसी और न ही कोई उत्तेजक प्रदर्शन हुआ. जानने की जरूरत है कि आखिर अभी यह सब क्यों और कैसे हो गया?
जब पूरे देश में ‘देशभक्त’ होने के लिए ‘भारत माता की जय’ बोलने की शर्त तय की जा रही हो, तो कहीं यह घटना टकराव आमंत्रण कार्रवाई का हिस्सा तो नहीं है? सिर्फ संघ परिवारी संगठनों को ही नहीं, केंद्र सरकार को भी कश्मीर मामले में थोड़ी संजीदगी के साथ काम लेना चाहिए. निजी सांगठनिक हित से ज्यादा बड़ा है देशहित. बहुत मुश्किलों और चुनौतियों के बीच बीते दस-बारह सालों में कश्मीर के हालात सुधरे हैं.
इसमें वाजपेयी सरकार के कुछ अच्छे कामों और मनमोहन सिंह सरकार की पहलकदमियों के अलावा दक्षिण एशिया के बदले भू-राजनीतिक परिदृश्य की भी अहम भूमिका है. इस कामयाबी को यूं ही बरबाद करने की इजाजत किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए. देशभक्ति के ‘हिंदुत्व-चश्मे’ को उतार कर ‘भारतीय चश्मे’ से राष्ट्र और राष्ट्रवाद को देखने की जरूरत है.

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