भारत की विदेश नीति पर सवाल
।। डॉ गौरीशंकर राजहंस।। (पूर्व सांसद व पूर्व राजदूत) वर्ष 2013 समाप्त हो रहा है. किसी भी देश की सरकार की नीतियों में विदेश नीति अत्यंत प्रमुख होती है. खासकर तब जब उसका संबंध पड़ोसियों से हो. पीछे मुड़ कर देखने से लगता है कि 2013 में हमारी विदेश नीति संभवत: पूरी तरह असफल रही […]
।। डॉ गौरीशंकर राजहंस।।
(पूर्व सांसद व पूर्व राजदूत)
वर्ष 2013 समाप्त हो रहा है. किसी भी देश की सरकार की नीतियों में विदेश नीति अत्यंत प्रमुख होती है. खासकर तब जब उसका संबंध पड़ोसियों से हो. पीछे मुड़ कर देखने से लगता है कि 2013 में हमारी विदेश नीति संभवत: पूरी तरह असफल रही है. भारत चारों तरफ से दुश्मनों से घिर गया है. समझ में नहीं आता है कि निकट भविष्य में इन उलझी हुई परिस्थितियों से भारत कैसे निजात पायेगा?
हम सोये रहे और इस बीच पाकिस्तान और चीन का गंठबंधन अत्यंत मजबूत हो गया. हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाये. सच कहा जाये, तो हमारी इच्छाशक्ति इतनी प्रबल नहीं थी कि हम इस गंठजोड़ को कमजोर कर सकते. आये दिन चीन के सैनिकों द्वारा लद्दाख और अरुणाचल में घुसपैठ की खबरें आती रहती है. अनुनय-विनय करने के बाद चीनी सेना उस क्षेत्र से अस्थायी तौर पर हट जाती है. भारत सरकार की यह दलील अस्वीकार्य है कि भारत और चीन की सीमा रेखा भली-भांति अंकित नहीं है, इसीलिये चीनी सैनिक समय-समय पर भारतीय सीमा में घुस आते हैं. सच यह है कि चीन भारत को एक कमजोर देश समझता है. उसका इतिहास रहा है कि वह चोरी-छिपे पड़ोसी देशों की सीमा में घुसपैठ करता है और फिर उस क्षेत्र पर अपना दावा सदा के लिये मजबूत कर लेता है. 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था, उसके पहले उसने सीमा पर भारत की काफी जमीन हड़प ली थी, जिसे उसने कभी वापस नहीं किया. अरुणाचल को तो वह खुलेआम अपना भाग मानता है . लद्दाख के सीमावर्ती क्षेत्रों पर वह समय-समय पर अपना दावा जताता रहता है. इस बीच चीनी सैनिक पाक-अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों को प्रशिक्षित कर रहे हैं. भारत सरकार सबकुछ जानते हुए भी मक्खी निगल रही है और चीन-पाक गंठजोड़ मजबूत हो रहा है.
हमारी अदूरदर्शिता के कारण कल तक हमारा निकटतम मित्र रहा श्रीलंका चीन की गोद में जा गिरा है. श्रीलंका में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद चीन ने वहां पर युद्ध स्तर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत किया. चीन, श्रीलंका में एक भव्य बंदरगाह बना रहा है. इससे खाड़ी के देशों से भारत की ओर आनेवाले तेल के टैंकरों पर नजर रखी जा सकती है. यदि भविष्य में कोई युद्ध हुआ, तो चीन इन टैंकरों को भारत तक पहुंचने ही नहीं देगा. श्रीलंका में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत ने भी उसके इन्फ्रास्ट्रर को मजबूत करने का प्रयास किया. परंतु चीन की तुलना में वह नगण्य था. अब तो चीन और पाकिस्तान के साथ-साथ श्रीलंका भी भारत को आंखें दिखा रहा है. आये दिन वह भारत के मछुआरों को कैद कर लेता है और उनके साथ अत्यंत अमानवीय बर्ताव करता है.
चीन ने म्यांमार में एक बड़ा बंदरगाह बना लिया है. इससे म्यांमार का विदेशी व्यापार चीन की कृपा पर निर्भर हो गया है. नेपाल में चीन का गहरा प्रभाव किसी से छिपा नहीं है. चीन धीरे-धीरे भूटान में भी अपनी पैठ मजबूत कर रहा है. सबसे बड़ी सिरदर्दी अफगानिस्तान को लेकर है. 2014 में जब अमेरिका अफगानिस्तान से निकल जायेगा और उसके साथ ही नाटो की फौज भी अफगानिस्तान छोड़ देगी, तब अफगानिस्तान का क्या भविष्य होगा? अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई कई बार भारत आये और भारत सरकार से सैनिक मदद का आग्रह किया. लेकिन भारत सरकार हाथ पर हाथ धरे चुप बैठी है. जब अमेरिका और नाटो की फौज अफगानिस्तान से निकल जायेगी तब उस देश में घोर अराजकता फैल जायेगी. इसका सीधा प्रभाव भारत पर पड़ना तय है.
दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देश उम्मीद कर रहे थे कि एशिया में भारत ही चीन को टक्कर दे सकता है.
भारत में भी आम जनता यही समझती थी कि अमेरिका उसका सबसे बड़ा मित्र है और यदि कभी चीन से मुकाबला करने का समय आयेगा तो अमेरिका उसके साथ खड़ा होगा. परंतु देवयानी खोबरागड़े के प्रकरण ने यह साबित कर दिया कि अमेरिका भारत को कुछ भी महत्व नहीं देता है. अन्यथा हमारी महिला राजनयिक का इस तरह अपमान नहीं होता. अब तो खबरें आ रही हैं कि जिस समय देवयानी की गिरफ्तारी हुई थी उस समय उन्हें पूरी राजनयिक छूट मिली हुई थी. अमेरिका अब यह अच्छी तरह समझ गया है कि भारत में केंद्रीय सरकार अत्यंत कमजोर है. यह सोचना कि चीन से झंझट होने पर भारत अमेरिका का साथ देगा एकदम गलत है. जो देश चीन और पाकिस्तान से अपनी रक्षा नहीं कर सकता है वह अन्य पड़ोसी देशों की रक्षा कैसे करेगा? कुल मिला कर 2013 में भारत की विदेश नीति अत्यंत ही निराशाजनक रही. संभव है सभी पार्टियों के राजनेताओं को यह बात समझ में आये कि हमारी विदेश नीति की कमजोरी के कारण हमारी स्थिति संसार में हास्यास्पद हो गयी है. अगर दृढ़ता दिखाई जाये, तो अब भी इस बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारा जा सकता है और संसार में भारत को एक सम्मानजनक स्थान दिया जा सकता है.