नयी उम्मीदें जगा कर विदा हो रहा साल
।। प्रमोद जोशी ।। वरिष्ठ पत्रकार भाजपा में मोदी का आगमन पार्टी के पुराने हिंदुत्व का उदय नहीं, बल्कि नौजवानों की उम्मीदों का जागना है. वही नौजवान, जो मोदी का समर्थक है, ‘आप’ के साथ भी है. इसीलिए ‘आप’ का उदय भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. दिल्ली के सीएम पद की शपथ लेने […]
।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
भाजपा में मोदी का आगमन पार्टी के पुराने हिंदुत्व का उदय नहीं, बल्कि नौजवानों की उम्मीदों का जागना है. वही नौजवान, जो मोदी का समर्थक है, ‘आप’ के साथ भी है. इसीलिए ‘आप’ का उदय भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. दिल्ली के सीएम पद की शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल ने गीत गाया, ‘इनसान का इनसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा.’ ऐसे तमाम गीत पचास के दशक की हमारी फिल्मों में होते थे. नये दौर और नये इनसान की नयी कहानी लिखने का आह्वान उन फिल्मों में था.
पर साठ साल में राजनीति ही नहीं, फिल्मों, नाटकों, कहानियों और सीरियलों के स्वर भी बदल गये. 1952 के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जरूरत नहीं थी. सारी पार्टियां ‘आप’ थीं. तब से वक्त का पहिया पूरी तरह घूम चुका है. जो हीरो थे, विलेन लगते हैं.
सूरज अपनी जगह आग का गोला है. हमारी निगाहें उसे अलग-अलग रूपों में देखती हैं. डूबते को बाय-बाय और उगते को सलाम. सन 2013 का सूरज नौजवानों, खास कर महिलाओं की नाराजगी के साथ उगा था.
दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ वह आंदोलन राजनीतिक नहीं था, पर उसने युवाओं और महिलाओं को राजनीति में जाने की चुनौती दी. पिछले साल का सूरज ‘गम की शाम’ में विदा हुआ था. इस साल वह उम्मीदें जगाता हुआ जा रहा है. सूरज वही है, हमारी निगाहें बदली हैं.
सरकारी जड़ता और आम आदमी के प्रति बेरुखी को भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में चुनौती मिल रही है. अमेरिका की ताकतवर सरकार एडवर्ड स्नोडेन और जूलियन असांज के सामने असहाय है. पिछले डेढ़ साल से वह लंदन में इक्वेडोर के दूतावास में शरणार्थी बन कर अमेरिकी ताकत को चुनौती दे रहा है.
भारत में जिन दिनों अन्ना आंदोलन उभार था, उन्हीं दिनों अमेरिका में ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आंदोलन चल रहा था. उसका नारा है ‘वी आर नाइंटी नाइन परसेंट’. एक के खिलाफ निन्यानबे फीसदी का आंदोलन. उसकी वेबसाइट दावा करती है, ‘हम अमेरिका के 100 और दुनिया के 1500 शहरों में फैल चुके हैं.’ ‘आप’ के तौर-तरीकों और खासतौर से उसकी डायरेक्ट डेमोक्रेसी पर इस आंदोलन की छाप है.
इसी तर्ज पर यूरोप के अनेक देशों में भी आंदोलन खड़े हैं. ग्रीस, आयरलैंड, इटली, स्पेन से पुर्तगाल तक. ये आंदोलन वैश्विक वित्तीय संरचना और कल्याणकारी राज्य के बीच टकराव जैसे लगते हैं, जबकि भारत में यह बुनियादी राजनीतिक सुधार और शिक्षण का आंदोलन है. यह दो समाजों का फर्क भी है.
कुछ साल पहले तक हमारे यहां ‘राजनीति’ शब्द गाली का पर्याय माना जाता था. आज यह विश्वास है कि राजनीति को बदलना है तो इसमें शामिल हो जाओ. मुख्यधारा की राजनीति मुफ्त में आटा-चावल से लेकर टीवी-कंप्यूटर तक देकर जनता को झांसा दे रही है. जनता को समझना है कि मालिक वह है. ‘आप’ किसी सकारात्मक राजनीति का परिणाम न होकर विरोध की देन है.
लोकतंत्र भी तो बादशाहों के खिलाफ बगावत के रूप में उभरा था. दिसंबर, 2011 में लोकपाल विधेयक को जिस तरह राज्यसभा में अटका दिया गया, उससे देश की जनता को ठेस लगी थी. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को ‘पिंजड़े में बंद तोता’ से विभूषित किया. यह एक संवैधानिक संस्था का दूसरे पर तंज था. हम निरंतर मंथन की प्रक्रिया में हैं. परिणति है अमृत और विष दोनों. भ्रष्टाचार राजनीति में नहीं, हमारे भीतर है. हमें ही इसे दूर करना होगा.
भाजपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल कर राजनीतिक लाभ कमाया, पर सवालों के घेरे में वह भी है. इस साल कर्नाटक में जनता ने भाजपा को तमाचा मारा. राजनीति ने अपने ‘कंफर्ट जोन’ बना लिये हैं. उसे उनसे बाहर निकाला जा रहा है. इस साल जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों के चुनाव लड़ने पर रोक के बाबत दो फैसले किये और मुख्य सूचना आयुक्त ने छह राष्ट्रीय दलों से चंदे का हिसाब मांगा, तो दलों ने उसे नापसंद किया. पार्टियां मानती हैं कि एक बार चुनाव जीतने के बाद वे बादशाह हैं.
लोकतांत्रिक दबाव के कारण दागी सांसदों का अध्यादेश राहुल गांधी को फाड़ कर फेंकना पड़ा. इसके कारण ही लोकपाल बिल हाथों-हाथ पास हुआ. इसी कारण उन्हें अपने पैसे-पाई का हिसाब देना होगा. प्रशासनिक भ्रष्टाचार के पीछे बड़ा कारण यह चंदा और चुनाव लड़ने की भारी कीमत है.
इस साल वोटर को ‘नोटा’ मिला. हालांकि इसका खास प्रभाव पांच राज्यों के चुनावी नतीजों में नजर नहीं आया, क्योंकि काफी लोगों को नोटा का मतलब मालूम नहीं है. अंतत: किसी न किसी रूप में ‘राइट टु रिकॉल’ (चुने प्रतिनिधि को हटाने का अधिकार) भी वोटर को मिलेगा. उससे पहले वोटर को समझदार भी बनना होगा.
यह साल ‘राहुल बनाम मोदी’ के नाम था. पिछले साल का सूरज ढलने तक कोई निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता था कि वे भाजपा की ओर से पीएम पद के प्रत्याशी घोषित होंगे. इस साल जनवरी में कांग्रेस पार्टी पर्याप्त संगठित और चुनाव की दृष्टि से तैयार नजर आ रही थी, जबकि भाजपा अंदरूनी कलह से घिरी थी.
इसी अनिश्चय के माहौल में जनवरी में नितिन गडकरी को पद छोड़ना पड़ा. राजनाथ सिंह ने पार्टी अध्यक्ष पद संभाला. मई में कर्नाटक में पार्टी की बड़ी हार हुई. कांग्रेस के हौसले बढ़े. जून में भाजपा कार्यकारिणी की गोवा बैठक के बाद नाटकीय घटनाएं हुईं. इनकी परिणति 14 सितंबर को पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने के रूप में हुई.
कांग्रेस के पास नौजवानों को अपने साथ लाने का कोई जुगाड़ नहीं है. 2012 के नवंबर में कांग्रेस ने राहुल गांधी को 2014 के आम चुनाव के संचालन की जिम्मेवारी सौंप दी थी. जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर में राहुल को बाकायदा पार्टी उपाध्यक्ष घोषित करके उन्हें दूसरे नंबर का नेता घोषित कर दिया था.
पर वे अचानक मोदी के मुकाबले में आ गये. अप्रैल के पहले हफ्ते में सीआइआइ की एक गोष्ठी में उनके और श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स तथा फिक्की की महिला शाखा में मोदी के भाषणों की तुलना होने लगी. इन भाषणों से ही यह स्थापित हो गया कि मंच कला में मोदी राहुल से बेहतर हैं. पर बात इतनी भर नहीं है. कांग्रेस अपनी परंपरागत खानदानी राजनीति पर कायम है.
उधर मोदी गेट क्रैश करके शिखर पर आये हैं. उनके पीछे पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता था, बड़े नेता नहीं. उनके मीडिया मैनेजरों ने संजीदा राहुल को ‘पप्पू’ बना डाला. जवाब में मोदी ने ‘फेंकू’ नाम कमाया, पर उन्होंने अपनी आक्रामकता में सब कुछ छिपा लिया. भाजपा में मोदी का आगमन पार्टी के पुराने हिंदुत्व का उदय नहीं, बल्कि नौजवानों की उम्मीदों का जागना है.
वही नौजवान, जो मोदी का समर्थक है, ‘आप’ के साथ भी है. इसीलिए ‘आप’ का उदय भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. बहरहाल आज का सूर्यास्त ‘आप’ के नाम होगा और कल का सूर्योदय आपके नाम.