डॉ बुद्धिनाथ मिश्र //वरिष्ठ साहित्यकार
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इस वर्ष की बड़ी उपलब्धि भारतीय वैज्ञानिकों का सफल मंगलयान अभियान था. वह भ्रातृ द्वितीया का पर्व था. दीवाली के दो दिन बाद, भारत के वैज्ञानिकों ने असली दीपोत्सव मनाने का अवसर दिया था.
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वर्ष की आखिरी संध्या ब्रrापुत्र की लहरों को निहारते बीत रही थी. शाम का सूरज तांबे की बड़ी थाल जैसा लग रहा था. नहीं, वह मां कामाख्या के भाल की लाल बिंदी जैसा लग रहा था. गुवाहाटी न जाने कितनी बार आया, मगर ब्रrापुत्र नदी के उस पार का उत्तर गुवाहाटी कैसा है, पहली बार देख रहा था. ब्रrापुत्र को ब्रrा का पुत्र माना जाता है. सरस्वती, वह चाहे नदी हो या देवी, इसकी बहन है. इस समय ब्रrापुत्र का पानी उतना पारदर्शी नहीं था, जितना गंगा का जल ऋषिकेश में देखने का अभ्यस्त हूं. लहरें शांत हैं, मगर मेरे साथ स्टीमर पर बैठे प्रसिद्ध यात्रवृत्त-लेखक सांवरमल सांगानेरिया सचेत करते हैं-ब्रrापुत्र ऊपर से जितना शांत दिखता है, नीचे उतना ही बेचैन है. सामने बीच धारा में उमानंद द्वीप है, एशिया का सबसे छोटा द्वीप, जिस पर भैरव का मंदिर है. यहां भैरव जी का दर्शन किये बिना मां कामाख्या के दर्शन का फल नहीं मिलता. पीछे पहाड़ की चोटी पर मां कामाख्या का भव्य पुरातन मंदिर जगमगा रहा है. गुवाहाटी का प्राचीन नाम प्राग्ज्योतिषपुर है. महाभारत में इसका यही नाम है. गुवाहाटी यानी सुपारी का बाजार. मैं पहले गुवा का अर्थ गाय होने की अटकल लगा रहा था. सांगानेरिया जी ने उसे ठीक किया. उनका ‘ब्रrापुत्र के किनारे’ ग्रंथ असम पर हिंदी में एकमात्र प्रमाणिक ग्रंथ है. उन्होंने अरुणाचल पर और श्रीमंत शंकरदेव पर भी बहुत ही गवेषणापूर्ण पुस्तकें लिखी हैं. उनका पूरा परिवार मुंबई में रहता है, लेकिन वे अकेले यहां रह कर लेखन-कार्य करते हैं. असम के पुनर्जागरण में मारवाड़ी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका है. असमिया संस्कृति की नींव रखनेवाले ज्योतिप्रसाद अगरवाला व्यवसाय से चाय-बगान के मालिक थे, मगर उस क्षेत्र के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और आधुनिक असमिया भाषा के प्रथम नाटककार, कवि, कथाकार, संगीतकार, फिल्मकार, नृत्य-संयोजक आदि थे. उन्होने पहली असमिया फिल्म ‘जयमती’ 1934 में बनायी थी.
उत्तर गुवाहाटी एक गांव है, जहां असमिया ग्रामीण संस्कृति विशुद्ध रूप में फल-फूल रही है. यहां लोगों का बास दो मंदिरों के कारण हुआ है. एक तो दोल गोविंद मंदिर है, जिसमें विष्णु की प्रतिमा काले पत्थर की है. बहुत ही कलात्मक. यहां प्रसाद को भोग कहते हैं. इस मंदिर के पास ही वह ऐतिहासिक शिलालेख विशालकाय चट्टान पर उत्कीर्ण है, जो असम की गौरव-गाथा का महत्वपूर्ण अध्याय अपने अंक में समेटे है. मुहम्मद-बिन-बख्तियार खिलजी को लोग नालंदा विध्वंस के संदर्भ में ही जानते हैं. बिहार और बंगाल को बुरी तरह रौंदने के बाद जब वह सन् 1206 में 12 हजार घुड़सवारों के साथ असम आया, तो इसी इलाके में कामरूप के वीर राजा पृथु ने उसे सबक सिखाने की ठानी. जब उसकी सेना ब्रrापुत्र पार कर रही थी, तभी पुल को काट दिया गया, जिससे सभी सैनिक इस नदी में डूब गये. खिलजी की कब्र नालंदा के पास है, जिसे लोग अज्ञानतावश ‘पीर बाबा की मजार’ मानते हैं.
दूसरा मंदिर आचार्य शंकर देव द्वारा स्थापित सत्र है, जिसमें बड़ी संख्या में भक्त रह सकते हैं, और भजन-कीर्तन कर सकते हैं. सामाजिक क्रांति लाने के लिए श्रीमंत शंकरदेव ने मंदिरों के बजाय सत्रों या नामघरों की स्थापना पूर्वोत्तर क्षेत्र में की. इन सत्रों में ऊंच-नीच जाति का कोई भेदभाव नहीं रखा जाता है-‘हरि को भजे सो हरि को होई’. इस सत्र में शिष्यों के निवास के साथ-साथ वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार, शिक्षा, संगीत, अंकिया नाटक (शंकरदेव द्वारा विकसित नाट्यशैली) आदि की शिक्षा दी जाती थी. सत्रों के महंत ‘सत्रधिकार’ कहलाते हैं, जो आपसी झगड़ों पर न्याय भी करते हैं. आचार्य जी का मूल सत्र तो माजुली में है, जो एशिया का सबसे बड़ा नदी-द्वीप है. उसे विश्व धरोहर घोषित कराने का प्रयास चल रहा है. इस विशाल द्वीप को धीरे-धीरे ब्रrापुत्र नदी निगल रही है. उत्तर गुवाहाटी वाला सत्र छोटा जरूर है, मगर आचार्य शंकरदेव के जीवन से जुड़ा होने के कारण ऐतिहासिक महत्व का है.
वापसी में वही ब्रrापुत्र का चौड़ा पाट, नगर के घाट पर लगी नावें, शुक्रेश्वर मंदिर का चमकता कलश, औद्योगिक जगत का फूलता-फलता संसार. शाम गहराने लगी थी. सांगानेरिया जी ने भी अपने झोले से ऊनी टोपी निकाल कर पहन ली है. लेकिन मैं कुर्ते में ही मस्त रहा. देहरादून की ठंड की तुलना में यह जाड़ा तो बस गुलाबी जाड़ा है. इस संदर्भ में दो पंक्तियां याद आती हैं :
कमरे में फ्रिज सी ठंडक है। छत पर धूप तरेरे आंखें।।
पेड़ों पर छुट्टियां मनाते। बनपाखी फैला कर पांखें।।
घर से दूर परदेस में भी मुङो अपरिचय नहीं डंस रहा है. लगता है, जैसे मां कामाख्या की गोद में बैठा साल भर की घटनाओं का लेखा-जोखा कर रहा हूं. इस समय बीते साल की एक-एक घटना याद आ रही है. पानी की लहर पर सभी चित्र बनते और मिटते जा रहे हैं. मगर दो चित्र आंखों में गड़ जाते हैं. इनमें केदार घाटी का वह भयावह दृश्य याद आता है, जब हजारों भक्त सपरिवार पानी के प्रबल धार में बह गये या पहाड़ों की चट्टानों के नीचे दब गये. ‘कामायनी’ में वर्णित जल-प्रलय का साक्षात् रूप मेरे सामने था. मैं घंटों शिवालिक पर्वत श्रृंखला के मध्य बस में बैठा कामायनी की पंक्ति दुहरा रहा था-‘एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह/ ऊपर जल था, नीचे हिम था, एक सजल था एक सघन’. यह जल-प्रलय वर्ष 2013 की सबसे दुखद घटना थी.
बीते वर्ष की बड़ी उपलब्धि भारतीय वैज्ञानिकों का सफल मंगलयान अभियान था. वह भ्रातृ द्वितीया का पर्व था. दीवाली के दो दिन बाद, भारत के वैज्ञानिकों ने असली दीपोत्सव मनाने का अवसर दिया था. उस दिन मैं दोपहर से शाम तक मंगलयान को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी देखता रहा. मंगल का पृथ्वी से नाभि-नाल का संबंध है. इसके दो नाम संस्कृत में उसके भूमिपुत्र होने के प्रमाण हैं. उसका एक नाम ‘भौम’ है यानी भूमि से उत्पन्न. दूसरा नाम ‘कुज’ है. ‘कु’ का अर्थ पृथ्वी है. उससे जन्मा ‘कुज’ कहलाया. बीते वर्ष की इन दो घटनाओं में एक आंसू थी तो दूसरी काजल. जिंदगी से प्यार करनेवालों की एक आंख में काजल और दूसरी में पानी होता ही है. बीता वर्ष उन्हीं आंसुओं और काजलों के माध्यम से याद किया जायेगा. मैं जिस नदी की छाती को चीरते हुए शहर लौट रहा हूं, उसके भी दो पाट हैं-सुख और दुख. वर्ष के अंतिम दिन की अंतिम सांझ अंधेरे में डूब रही थी. मैं ज्योतिप्रसाद के गीत की पंक्तियां दुहराता हूं-
प्रकाश दो, प्रकाश दो, और प्रकाश दो।
मन का अंधेरा दूर कर, आलोक में ले चलो।।
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