मौजूदा समस्याओं की जड़ें गहरी हैं
।। रविभूषण ।। वरिष्ठ साहित्यकार अभी जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें ‘आप’ में संभावनाओं की तलाश की जा सकती है. भविष्य के गर्भ में जो भी है, उसका संबंध हमारे चिंतनशील मानस और विचारधारा से है. या तो पूंजीवादी व्यवस्था की गोद में गिरें या उसे ध्वस्त करें.तात्कालिकता का दबाव और अभाव हमें उन प्रश्नों […]
।। रविभूषण ।।
वरिष्ठ साहित्यकार
अभी जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें ‘आप’ में संभावनाओं की तलाश की जा सकती है. भविष्य के गर्भ में जो भी है, उसका संबंध हमारे चिंतनशील मानस और विचारधारा से है. या तो पूंजीवादी व्यवस्था की गोद में गिरें या उसे ध्वस्त करें.तात्कालिकता का दबाव और अभाव हमें उन प्रश्नों से निरंतर विमुख कर रहा है, जो स्वतंत्र भारत में जटिल से जटिलतम हो चुके हैं. ‘आम आदमी पार्टी’ ने कांग्रेस के सहयोग से दिल्ली में सरकार बना ली है और विधानसभा अध्यक्ष के पद पर ‘आप’ के ही विधायक हैं.
फिलहाल ‘आप’ के साथ दिल्ली में कांग्रेस और जदयू हैं. भारतीय राजनीति ने एक नयी करवट ली है और रथयात्रा से वह झाड़ूयात्रा तक पहुंच चुकी है. गांधी और जयप्रकाश ने अपने जीवनकाल में ही अपने सपनों को तार-तार होते देखा था. दोनों के पास एक विचारधारा थी. जयप्रकाश आंदोलन जैसा माहौल अभी नहीं है. सच्चई यह है कि भारत में अब तक कोई क्रांति नहीं हुई है.
सत्ता-हस्तांतरण को क्रांति समझना और जयप्रकाश आंदोलन को दूसरी क्रांति की संज्ञा क्रांति का मखौल उड़ाना है. सत्ता-परिवर्तन व्यवस्था-परिवर्तन नहीं होता. राजनीति में कोई भी लहर स्थायी नहीं होती. वह उठती-गिरती रहती है. व्यवस्था अपने लाभ के लिए लहरों को जन्म भी देती है.
यह संयोग नहीं कि जिस समय अरब देशों में व्यवस्था-परिवर्तन के लिए जनसमूह सड़कों पर सैलाब बन कर उमड़ा था, लगभग उसी समय अन्ना आंदोलन जारी था. मुद्दे बदलते रहते हैं. सत्ता में बने रहने या सत्ता प्राप्त करने के लिए सदैव एक मुद्दा नहीं रहता. अब अयोध्या, राममंदिर, हिंदू राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता आदि का मुद्दा पीछे छूट रहा है. अब ‘विकास’ के बाद ‘भ्रष्टाचार’ बड़ा मुद्दा है.
स्वाधीनता आंदोलन केवल अंगरेजों को खदेड़ने, उन्हें बाहर करने के लिए नहीं था. उसमें कई धाराएं शामिल थीं. व्यवस्था-परिवर्तन कांग्रेस का कभी काम्य नहीं रहा. स्वतंत्र भारत में लोहिया और जयप्रकाश के एजेंडे में भी व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था. दोनों समाजवादी थे.
पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त किये बगैर समाजवादी व्यवस्था नहीं आ सकती. अब तक कांग्रेस विरोध ही प्रमुख रहा. नरेंद्र मोदी अभी हाल-हाल तक कांग्रेस-मुक्त भारत की बात कर रहे थे. इसकी पूरी संभावना है कि ‘आप’ भ्रष्टाचार-मुक्त भारत का नारा देकर आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराये. मोदी अब ‘वोट फॉर इंडिया’ की बात कह रहे हैं. इसमें कोई नयापन नहीं है. ‘भारत’ और ‘इंडिया’ में फर्क है. इंडिया शाइनिंग है, भारत विपन्न है.
बीस-तीस करोड़ की आबादीवाला भारत अब मनमोहन सिंह से लाभ प्राप्त कर नरेंद्र मोदी के बगल में या उनके पास खड़ा हो सकता है, पर अस्सी-नब्बे करोड़ वाले भारत का अपना नेता- ‘जननेता’ कौन है? निश्चित रूप से न वे मोदी हैं और न राहुल गांधी. तो क्या सचमुच आम आदमी का नेता अरविंद केजरीवाल हैं? ‘आम आदमी पार्टी’ कांग्रेस और भाजपा न होकर ‘आप’ है? राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में समय-समय पर मेल-मिलाप होता रहा है.
कांग्रेस और भाजपा के साथ होने के लिए वे मजबूर रहे हैं. यह राजनीति का यथार्थ है, जिसका आदर्श से कोई संबंध नहीं. सत्ता में आने के लिए समझौते जरूरी हैं, लेकिन क्रांति का समझौतों से कोई संबंध नहीं होता. समझौते की राजनीति ही अवसरवादी बन जाती है. अगला प्रधानमंत्री कोई भी हो, क्या उससे भारत की व्यवस्था बदलेगी? मनमोहन सिंह ने अभी प्रेस कॉन्फ्रेंस में अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से ‘आप’ के निबटने की सक्षमता समय पर छोड़ दी है.
भाजपा में येदियुरप्पा की पार्टी का विलय हो चुका है और आदर्श घोटालेबाजों में महाराष्ट्र की सरकार ने नेताओं को अलग कर दिया है. कांग्रेस का दिल्ली में जो चेहरा है, महाराष्ट्र में वही नहीं है. केजरीवाल को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर ‘आप’ संसद की तीस-चालीस सीटें ले सकती है.
क्या चुनावी गणित या स्लोगन से समस्याएं सुलङोंगी या हमें उन जड़ों को भी देखना होगा, जिन्हें भूल कर डाली पर बैठा जा रहा है.
फिलहाल ‘आप’ एक संभावना है. एक नवजात क्षेत्रीय दल कल राष्ट्रीय दल हो सकता है. केंद्र में सत्तासीन भी हो सकता है. भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनावी मुद्दा बनेगा, पर क्या भ्रष्टाचार ही सभी बुराइयों की जड़ है? क्या सचमुच ‘आप’ का अभ्युदय भारतीय राजनीति में एक मोड़ है? जयप्रकाश नारायण ने सत्तर के दशक में युवाओं का आह्वान किया था.
‘यंग इंडिया’ गांधी का पत्र था. आज सचमुच भारत युवा है. क्या ‘युवा’ भारत का ‘वोट बैंक’ बनेगा? स्वतंत्र भारत की परतंत्रता पर कम विचार होता है. हमने 1947 के बाद स्वतंत्रता-आंदोलन की इतिश्री कर दी. उसकी जरूरत महसूस नहीं की. समाजवादी और कम्युनिस्ट इतने विभाजित हुए कि भारतीय राजनीति में आज उनकी तुलना में ‘आप’ का कद सबको दिख रहा है, जबकि इसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है.
पूंजीवादी और समाजवादी विचारधारा छोड़ कर राजनीति में अभी किसी तीसरी विचारधारा का जन्म नहीं हुआ है. अंगरेजों ने शासन करने के लिए जो ढांचा निर्मित किया था, वह आज भी बरकरार है. इस ढांचे से भ्रष्टाचार का सीधा रिश्ता है. ढांचे को हटाये बिना भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं हो सकती.
वास्तविक मुक्ति भ्रष्टाचार मुक्ति नहीं है. मार्क टली ने अभी अपने एक लेख ‘करप्शन नाट रूट ऑफ ऑल इविल’ में जो बातें कही हैं, उधर हमारे बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का ध्यान नहीं जाता. मार्क टली ने अमेरिकी अर्थशास्त्री लैंट प्रिचेट द्वारा एक मुहावरे के निर्माण की बात कही है कि भारत अशक्त या दुर्बल राज्य न होकर हाथ-पैर हिलानेवाला राज्य (नॉट ए फेलिंग स्टेट बट ए फ्लेलिंग स्टेट) है, क्योंकि अपनी नीतियों को लागू करने का उसका सामथ्र्य कमजोर है.
प्रिचेट ने प्राय: सभी रुटीन सेवाओं में उच्छृंखल अनुपस्थित, उदासीनता और असमर्थता के बाद भ्रष्टाचार की बात कही है. भ्रष्टाचार पर केंद्रित न कर औपनिवेशिक शासन के उन पक्षों पर केंद्रित करें, जो भारत को वास्तविक स्वतंत्रता दिलाने में बाधक हैं. आज ब्रिटिश राज की बिखरती संस्थाएं और पुराने कानून मौजूद हैं, जो औपनिवेशिक विरासत की याद दिलाते हैं.
अब ‘सिविल सरवेंट्स’ न तो सिविल हैं, न सरवेंट. वे पूर्ववर्ती शासकों की याद दिलाते हैं. टली उन्हें स्वराज के प्रतीक के रूप में न देख कर ‘स्टेट राज’ के प्रतीक के रूप में देखते हैं.
उपनिवेशवाद ने शासन-व्यवस्था से कहीं अधिक गहरे घाव छोड़े हैं. ब्रिटिश शासन के स्मृति-चिह्नें को धो-पोंछ कर ही एक नये भारत का ‘विजन’ पेश किया जा सकता है. अभी जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें ‘आप’ में संभावनाओं की तलाश की जा सकती है. भविष्य के गर्भ में जो भी है, उसका संबंध हमारे चिंतनशील मानस और विचारधारा से है. या तो पूंजीवादी व्यवस्था की गोद में गिरें या उसे ध्वस्त करें.