सर्वसमावेशी विकास के मद्देनजर फैसला
हर चीज अपनी बढ़वार चाहती है. इसी तर्क से पूंजी को प्रवाह चाहिए, विकास को गति. सच यह भी है कि मौजूदा विकास का लाभ सभी लोगों तक नहीं पहुंच रहा है. इसीलिए हालिया वर्षो में सरकार ‘डेवलपमेंट विथ ह्यूमन फेस’ (मानवता का हितसाधक विकास) और ‘इन्क्लूसिव ग्रोथ’ (सर्वसमावेशी विकास) की बात कहती रही है. […]
हर चीज अपनी बढ़वार चाहती है. इसी तर्क से पूंजी को प्रवाह चाहिए, विकास को गति. सच यह भी है कि मौजूदा विकास का लाभ सभी लोगों तक नहीं पहुंच रहा है. इसीलिए हालिया वर्षो में सरकार ‘डेवलपमेंट विथ ह्यूमन फेस’ (मानवता का हितसाधक विकास) और ‘इन्क्लूसिव ग्रोथ’ (सर्वसमावेशी विकास) की बात कहती रही है. ऐतिहासिक कारणों से भारत में विकास का मुख्य अर्थ आधारभूत ढांचे का विकास और विस्तार रहा है.
करीब डेढ़ साल पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी कैबिनेट को नये सिरे से संवारा था, तब विदेशी निवेश न्योतने के साथ-साथ आधारभूत ढांचे के विकास के निमित्त सर्वाधिक निवेश करने की बात दोहरायी थी. लेकिन इस विकास प्रक्रिया को तेज करना अकसर उसके सर्वसमावेशी होने में बाधक साबित होता है. इसके मद्देनजर हाल के वर्षो में कुछ नये विधान रचे गये हैं. इसमें किसी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके पर्यावरणीय दुष्प्रभावों तथा संभावित विस्थापन के आकलन के आधार पर गुण-दोष के विवेचन और प्रभावित समुदाय की सहमति-असहमति को प्रमुख स्थान दिया गया है.
लेकिन देश का कारोबारी जगत ऐसे विधानों को विकास की गतिधारा में अड़चन की तरह देखता है. यही कारण है कि परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच तनातनी चल रही है. पहले 2011 में और फिर सितंबर, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रलय से कहा था कि परियोजनाओं के पर्यावरणीय आकलन के लिए वह एक राष्ट्रीय नियामक स्थापित करे. अक्तूबर, 2013 में मंत्रालय ने कोर्ट में हलफनामा दिया कि राष्ट्रीय नियामक बनाना गैरजरूरी है, क्योंकि पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन के लिए तंत्र पहले से मौजूद है. अब मंत्रालय की इस मंशा पर पानी फेरते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय नियामक बनाने का आदेश सुना दिया है.
संभव है, सरकार कहेगी कि कोर्ट ने नीतिगत क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है, लेकिन संकेत हैं कि यूपीए सरकार चुनावों के पहले वन व पर्यावरण मंत्रलय के प्रभार में फेरबदल कर किन्हीं परियोजनाओं को मंजूरी देने की हड़बड़ी में है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार की हड़बड़ी पर लगाम लगाने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है.