एक बड़ी-सी इमारत होता है माल

।। चंचल।।(सामाजिक कार्यकर्ता) प्रस्ताव आ गया कि जब तलक ‘सीतलहरी’ का प्रकोप है, तब तलक सुब्हे की पहली चाह चुन्नी मार्का चाय बनेगी, जिसे पीना हो हाथ उठाये, जिसे न पीना हो उठ के चल दे. बारह हाथ उठे जिन्हें एक दो कर के गिना गया, बाकी दो जन लोटी परधान और गोबिंदा खरवार उठ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 8, 2014 3:37 AM

।। चंचल।।
(सामाजिक कार्यकर्ता)

प्रस्ताव आ गया कि जब तलक ‘सीतलहरी’ का प्रकोप है, तब तलक सुब्हे की पहली चाह चुन्नी मार्का चाय बनेगी, जिसे पीना हो हाथ उठाये, जिसे न पीना हो उठ के चल दे. बारह हाथ उठे जिन्हें एक दो कर के गिना गया, बाकी दो जन लोटी परधान और गोबिंदा खरवार उठ कर बिसुनाथ की दूकान की तरफ बढ़ गये. जिस चुन्नी मार्का चाय की बात हो रही है, दरअसल वह चुन्नी पंसारी की दूकान पर मिलनेवाली जड़ी-बूटी से तैयार होती है और इसका इजाद केदार बैद ने किया है-एक टुकड़ा दालचीनी, एक नग सफेद पीपर, दो ठो काली मिर्च, चुटकी भर सोंठ औ कुल चार तोला मिस्री को पाव भर पानी में उबाल दीजिए, जब आधा पानी रह जाये, तो छान के पी जाइए. फिर बरफ में घुस जाइए.. (यह चुन्नी के बोलने का अपना अंदाज है) गरज यह कि यह उनका अपना मुहावरा है, जो सामान देते समय ‘घेलुआ’ में देते हैं. इसके चलते उनके यहां कई संभ्रांत महिलाएं सौदा लेने से कतराती हैं-मुआ! बरबखत कुबातई बोलता है. लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जो दिन में तीनबार चुन्नी को न सुने तो उनका पानी न पचे. उनमें नन्हकू सिंह भी हैं. बे नागा चुन्नी से बतियाने चले आते हैं. मनलगे की बात है.

रही बात लोटी परधान की तो उन्हें चुन्नी के सामान से नहीं चुन्नी से कुढ़ है-अगर इ चुन्निया अपनी बात पे कायम रहता तो का मजाल कि हम चुनाव हार जाते सो भी एक तेली से? चुनांचे लोटी परधान चुन्नी के खिलाफ हो गये. दूसरे गोबिंदा खरवार तो और भी खार खाये बैठा है. गोबिंदा सूरजबली सिंह के साथ ड्योढ़दार है, सूरजबली आल्हा के मूल्गैन है, वह उनके साथ टूनटून्नी बजाता है. आल्हा के दंगल में गोबिंदा ने चुन्नी से सोंठ और मिर्च लेने गया था कि गला फरहर रहे पर उसने सोंठ और मिर्च की जगह जमालगोटा दे दिया. नतीजा जे हुआ कि सूरजबली उहां दंगल में और दोबिंदा इहां ढोल मजीरा के साथ अपने बगीचा में जमालगोटा का कमाल ङोल रहा. लोटा लिये तहमत उठाये अरहर के खेत में हर बार भगवान से कहे कि अब बस नाथ! लेकिन कौन सुनता है, बेचारा लस्त हो गया. आज तक गोबिंदा चुन्नी को गरियाता है.

बहरहाल चुन्नी मार्का चाय बनी. लोग पीते रहे, गर्मी महसूस करते रहे. इसी बीच उमर दरजी ने नयी बात बतायी- नान्हू लोहार भभुआ से लौट आये हैं, हरदी-माठा पी रहे हैं. लोग चौंके -आयं! भभुआ तो उसकी ससुराल है? उमर ने बताया कि उसी में कुछ गड़बड़ हुआ. असल बात बताया लाल्साहेब ने, नान्हू लोहार से लाल्साहेब की दांतकाटी दोस्ती जो है. चुनांचे बैठक ने लाल्साहेब को मौका दिया और लाल्साहेब ने हल्फिया बयान शुरू किया.

सुना जाय पंचो.. हुआ यूं कि नान्हू अपनी ससुराल गया था भभुआ. उसकी सरहज ने जिद किया कि ‘नंदोई, हम्मे एक ठो ऊ महकुआ साबुन ले दो जिसके लगाते ही औरत गोरी हो जाती है.’ उसके छोटे साले ने कहा जीजा बाजार जा ही रहे हो, तो हमारे लिए एगो ललका लंगोट लेते आना. सास ने कहा बेटा पैसा बचे तो गरम मसाला ले लियो.. गरज यह कि इन तमाम फरमाइस में उसने अपनी तरफ से भी कई चीजे जोड़ ली. रम का अद्धा, ससुर जी के लिए एक बाल्टी और चल दिया बाजार.

फिर? फिर क्या! एक जगह बुजुर्गो की महफिल लगी थी. चाय की दूकान पर राजनीति चल रही थी. नान्हू भी उसी में जम गया. अचानक उसे याद आया समान की. उसने एक बुजुर्ग से पूछ लिया- हियां माल कोथाय? बुजुर्ग जो पहले ही नान्हू के मार्क्‍स से चिढ़े बैठे थे. पहले तो चौंके फिर बोले क्या बोलता है जी? नान्हू ने कोथाय को हिंदी किया-यहां माल कहां है? बस इतनी सी बात और नान्हू की कुटम्मस शुरू. किसी तरह नान्हू जान बचा कर निकला और सीधे घर.

तो कुम्मस क्यों भाई? बुड़बक हो का, गांव में, कसबे में, छोटे शहरों में आज भी माल का मतलब कुछ और होता है और बड़े शहरों में और.. मद्दू पत्रकार ने समझा तो दिया, लेकिन कयूम को नहीं समझ में आया. माल एक बहुत बड़ी इमारत होती है. उसमें लंगोट मिलता है, थाली बिकती है, कपड़ा धोने की मशीन और धनिया मिर्चा भी. सिंघाड़े का आंटा मुंह धोने का साबुन, हरी मिर्च, शिवपुर का बैगन सब एक इमारत में. मोटर सायकिल और ट्रक तक. इसे कहते हैं माल.

इन्ना ही नहीं और भी बहुत कुछ. तो यह तो बहुत उम्दा इंतजाम है, कयूम ने खुशी जाहिर की. लेकिन चिखुरी जो चुपचाप बैठे सब सुन रहे थे, हत्थे से उखड़ गये-क्या खाक उम्दा? लूट का नया तरीका. लोगों के हाथ काटने का इंतजाम. कहां जायेंगे छोटे दुकानदार, खोम्चावाले, रेड़ीवाले, फेरीवाले. पहले मशीन ने पीटा, अब पूंजी पीट रही है. कम्बख्त जो मोटर बनायेंगे, वही सब्जी भी बेचेंगे. जो बिजली बनायेंगे, वही लंगोट भी बेचेंगे. चर्मकारों की बस्ती खत्म, अब जूता-चप्पल बहुराष्ट्रीय लोग बनायेंगे. अब तो इनसान का कद पैसे ने नाप लिया है.

Next Article

Exit mobile version