विश्व के विश्वविद्यालयों की चर्चा के पहले आज विश्वविद्यालयों के ‘विश्व’ पर चर्चा बेहद जरूरी है. 14वीं शताब्दी में जब ‘यूनिवर्सिटी’ शब्द पहली बार प्रयुक्त हुआ था- रेनेसां काल में, उस समय से आज तक का विश्व बहुत बदल चुका है. ‘यूनिवर्स’ और ‘विश्व’ के सामान्य अर्थ ‘संसार’, ‘ब्रह्मांड’ और ‘सृष्टि’ से हम सभी परिचित हैं.
वैचारिक स्वतंत्रता, सहिष्णुता, उदारता, तार्किकता, बौद्धिकता, संवादप्रियता, विवेकशीलता, वैचारिक संपन्नता, नवीन खोज-आविष्कार और ज्ञानाभिमुखता से परे विश्वविद्यालयों की छवि कैसी होगी? क्या ‘विश्व ग्राम’, नयी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, बाजार और कॉरपोरेट पूंजी ने विश्वविद्यालय के ‘विश्व’ को संकीर्ण नहीं कर दिया है? क्या अब हमारे अधिसंख्य विश्वविद्यालय ज्ञान-विमुख नहीं हैं? क्या विश्वविद्यालय ज्ञान के मुंह पर तमाचे मारने के लिए हैं? अब अधिसंख्य विवि यथास्थितिवाद के मजबूत गढ़ हैं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की चिंताएं ऊपरी और सतही हैं. विश्वविद्यालयों ने अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक भूमिका समाप्त कर दी है.
31 मार्च, 2016 को यूजीसी द्वारा जारी की गयी सूची में अनुमोदित 749 विश्वविद्यालय और 37,204 कॉलेज हैं. इनमें से कितने विश्वविद्यालय ‘विश्व’ से व्यापक अर्थों में जुड़े हैं? उनके अध्ययन-अध्यापन शोध आदि का स्तर ऊंचा उठा है या नीचे गिरा है? क्या
‘नैक’ की ग्रेडिंग से कोई शिक्षण-संस्थान सही अर्थों में ज्ञान और
शोध का केंद्र बन जाता है? विश्वविद्यालयों में व्यापक, विस्तृत,
विलक्षण दृष्टि का अभाव क्यों हैं? विश्वविद्यालय आरती उतारने, जयगान करने, शंख फूंकने और ‘राष्ट्रवादी’ नारे लगाने की जगह नहीं है. अल्पशिक्षित, अर्धशिक्षित मंत्री क्या सचमुच दिशा/दृष्टि देने में सक्षम है? विश्वविद्यालय 400 फीट की ऊंचाई पर तिरंगा फहरा देने से बड़ा नहीं बनता. केंद्रीय विश्वविद्यालय का एक कुलपति भी ऐसे फरमान और ‘राष्ट्रप्रेम’ पर अपना मुंह नहीं खोलता. विश्वविद्यालय पटेल जयंती मनाने के लिए भी नहीं है. पटेल कहीं से भी विचारक-चिंतक नहीं थे. सुनील खिलनानी ने अपनी नयी पुस्तक ‘इन्कारनेशंस : इंडिया इन 50 लाइव्स’ में ढाइ हजार वर्ष के जिन पचास भारतीयों पर लिखा है, उनमें न नेहरू हैं, न पटेल. पहले मौलाना अबुल कलाम आजाद, केएल श्रीमाली, हुमायूं कबीर जैसे शिक्षा मंत्री थे और अब? सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जिस जेएनयू को नक्सलियों-माओवादियों का गढ़ कहा था, उस जेएनयू को हॉर्वर्ड की तुलना में बेहतर माननेवाले साधारण लोग नहीं हैं. देश और समाज के ही नहीं, विश्व के बड़े सवालों से छात्र और अध्यापक आंखें नहीं मूंद सकते. विवि विश्व-निर्माण के लिए है, न कि विश्व-संहार के लिए. जाति, धर्म, समुदाय, संप्रदाय, रंग, लिंग में विभक्त समाज के प्रति विश्वविद्यालयों की क्या भूमिका होनी चाहिए?
विश्वविद्यालयों को आिर्थक सहायता देने का अर्थ यह नहीं है कि उसे सत्ता-व्यवस्था, सरकारें, बंधक बना लें, उसकी रीढ़ और कमर तोड़ दें, दिमाग सुन्न कर दें, मस्तिष्क नष्ट कर दें. विश्वविद्यालय लकवाग्रस्त क्यों बनें? शिक्षा मंत्री, राज्यपाल, कुलपति, सबकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर सदैव नहीं होती. चाटुकारों, वफादारों, दरबारियों की जगह दूसरी है. जिस जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालयों को ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ कहा गया था, वे आज रैंकिंग में सबसे ऊपर है. विश्वविद्यालयों में भय के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. वहां बोलने, सोचने, बहस करने, प्रश्न करने की आजादी रहनी चाहिए. उसका ‘विश्व’ बड़ा है- पूरा संसार है, ब्रह्मांड है. वहां कांग्रेस, भाजपा ही नहीं, सभी दलों की तथ्यपरक आलोचना क्यों नहीं होनी चाहिए? वहां बेकारी, भुखमरी, ब्राह्मणवाद, संघवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद, बाजारवाद और हिंदुत्व के खिलाफ क्यों मुखर नहीं होना चाहिए? विश्वविद्यालय मात्र डिग्री हासिल करने के लिए नहीं है. अंतर अनुशासनात्मक अध्ययन, अध्यापन, शोध के बिना एक विश्वविद्यालय जीवित नहीं रह सकता.
क्यों किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मंत्रियों को आमंत्रित किया जाता है? कितने विश्वविद्यालयों में विचारकों, चिंतकों, बौद्धिकों को आमंत्रित किया जाता है? ‘विश्व’ का अर्थ सब समझते हैं, पर विश्वविद्यालयों से ‘विश्व’ की विदाई हो चुकी है. इससे सत्ता-व्यवस्था को लाभ पहुंचता है. मंत्री जी गदगद होते हैं. कितने कुलपति, कुलाधिपति और मंत्री विश्वविद्यालय की गरिमा-महिमा बहाल करने के लिए सक्रिय हैं? वे कहां हैं, कौन हैं? कौन बतायेगा?
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
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