ऋण ही नहीं, आय भी बढ़ाएं
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) की 12 साल पहले आयी एक रिपोर्ट (2003) में कहा गया था कि देश के करीब 48 प्रतिशत खेतिहर परिवारों पर कर्ज का बोझ है. कर्जदार किसान परिवारों के बारे में एनएसएस की एक रिपोर्ट डेढ़ साल पहले भी आयी. इस रिपोर्ट ने बताया कि एक दशक के भीतर देश में […]
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) की 12 साल पहले आयी एक रिपोर्ट (2003) में कहा गया था कि देश के करीब 48 प्रतिशत खेतिहर परिवारों पर कर्ज का बोझ है. कर्जदार किसान परिवारों के बारे में एनएसएस की एक रिपोर्ट डेढ़ साल पहले भी आयी. इस रिपोर्ट ने बताया कि एक दशक के भीतर देश में कर्जदार खेतिहर परिवारों की संख्या बढ़ कर 52 फीसदी हो गयी है.
बात सिर्फ कर्जदार किसान परिवारों की संख्या बढ़ने तक सीमित नहीं है. रिपोर्ट में यह भी जिक्र था कि कर्जदार खेतिहर परिवारों पर कर्जे का औसत बोझ चार गुना बढ़ कर 47,000 रुपये हो गया है. एनएसएस की इन दो रिपोर्टों के बीच यानी बीते एक दशक के दौरान किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में ऐसी कोई प्रत्यक्ष कमी नहीं आयी है, जिससे लगे कि किसानों की दशा सुधारने के सरकारों के दावे जमीन पर उतर रहे हैं.
एक दफे (2008 में) केंद्र सरकार ने सोचा कि अगर किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं, तो अच्छा होगा कि उनके कर्जे माफ कर दिये जाएं. कर्जमाफी हुई, लेकिन किसानों की आत्महत्याएं नहीं रुकीं. इस समय की केंद्र सरकार कुछ अलग ढंग से सोचती नजर आ रही है. उसे लग रहा है कि किसानों को आसानी से कर्ज मिल जाये, तो आत्महत्याएं रुक जायेंगी. यही सोच रही होगी कि जो केंद्रीय कृषि सचिव ने कहा है कि छोटे और मंझोले किसानों के लिए सरकारी पैसा खूब दिया जा रहा है, लेकिन कृषि क्षेत्र में ऋण पाने की स्थिति ठीक नहीं है, इसलिए किसान संस्थागत ऋण की जगह महाजनों से ऊंची ब्याज दर पर कर्ज ले रहे हैं और इसी कारण आत्महत्या कर रहे हैं.
कृषि सचिव ने सुझाया है कि किसानों को संस्थागत कर्ज देने की स्थितियों में सुधार किया जाना चाहिए. राज्यों से कहा गया है कि वे सुनिश्चित करें कि संस्थागत कृषि ऋण छोटे और मंझोले किसानों के हाथ में पहुंचे. अभी करीब 40 फीसदी कर्जदार किसानों ने महाजनों से कर्ज लिया हुआ है, इसलिए यह समाधान दमदार नजर आ सकता है. लेकिन, हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की दशा में सुधार के लिए असल जरूरत उन्हें आसान कर्ज मुहैया कराना नहीं, बल्कि उनकी आमदनी बढ़ाना है.
किसानों की आय व उपार्जन क्षमता बढ़ाये बिना न तो देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान बढ़ाया जा सकता है और न ही खेती की पुरानी महिमा लौटायी जा सकती है. इसलिए सरकार को चाहिए कि तात्कालिक उपचार की जगह रोग के असली कारणों को खत्म करने की दिशा में गंभीर कदम उठाये.