एक मौसम होता था आम

प्रभात रंजन कथाकार दिल्ली में मैं जिस सोसाइटी में रहता हूं, वहां आसपास आम के कुछ पेड़ हैं. सुबह-सुबह निकलता हूं जमीन पर टिकोले (अमिया) गिरे दिखाई देते हैं. वसंत में जो मंजर (मोजरे) आये थे, अब फल बन गये हैं. जब-जब टिकोले पैरों से टकराते हैं, मन अपने गांव चला जाता है. बरसों पुराने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 14, 2016 7:02 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
दिल्ली में मैं जिस सोसाइटी में रहता हूं, वहां आसपास आम के कुछ पेड़ हैं. सुबह-सुबह निकलता हूं जमीन पर टिकोले (अमिया) गिरे दिखाई देते हैं. वसंत में जो मंजर (मोजरे) आये थे, अब फल बन गये हैं. जब-जब टिकोले पैरों से टकराते हैं, मन अपने गांव चला जाता है. बरसों पुराने बचपन के गांव जब आम कोई फल नहीं होता था, बल्कि अपने आप में एक मौसम की तरह होता था. मंजर आने के दिनों से ही घर भर के लोग आनेवाले आमों की कल्पना किया करते थे. इस तरह की कल्पना कि संभावित आंधियों के बाद पेड़ पर कितने फल बच जायेंगे.
बैसाख की धूल भरी गर्म हवा के मौसम में सबसे पहले जर्दालू आम पकता था, जिससे जर्दे की खुशबू आती थी. उसके बाद बीजू आम, जिसमें गूदा कम और गुठली अधिक होती थी. गर्मी जैसे-जैसे चढ़ती बड़े आमों के पकने का मौसम आता था.
सबसे पहले बंबइया आम, जिसके स्वाद का कोई जवाब नहीं होता था, और उसके मीठेपन की खुशबू, गछपक्कू आम को पाने की ललक, सब बचपन के दिनों में ले जाते हैं. उसके बाद पकने का समय आता था मालदह आम का, बाबा जिसे आमों का राजा कहा करते थे. सुबह उठ कर आम के बाग (गाछी) में गिरे हुए आमों को चुनने का अपना ही सुख होता था. सबसे अधिक गछपक्कू आम रात में गिरते थे, जिनको सुबह चुन कर घर लाया जाता था, बाबा आमों की गिनती करके रखते थे.
हम सुबह-सुबह ही बाग में छिप कर आम खा लिया करते थे. आमों के साथ हमारी शरारतें भी होती थीं. पापा आमों को खाकर उसको वापस गुठली के साथ फुला कर रख दिया करते थे. जब बाबा उनको गछपक्कू समझ कर उठाते और उसको खाली पाते, तो भड़क जाया करते थे. हम सब इसका खूब आनंद उठाया करते थे.
बाबा की चारपाई बाग में रहती थी, दिन में हम सभी की बारी-बारी से बाग की रखवाली की ड्यूटी लगा करती थी. हमारा नंबर अक्सर दोपहर में आता था, जब बाबा घर खाना खाकर आराम करने आते थे. दोपहर में सबसे कम आम गिरते थे. सेनुरिया, कर्पूर जैसी सुगंध वाला आम कर्पुरिया, सीताफल आम, जो कच्चा खाने में मीठा लगता था और पकते ही बेस्वाद हो जाता था.
आमों के मौसम में बुआ मध्य प्रदेश से आती थीं. बंबइया आम के पकते-पकते आ जाती थीं और मौसम के सबसे अंत में पकनेवाले आम कलकतिया आम के साथ चली जाती थीं. आम का मौसम सिर्फ अलग-अलग आमों के स्वाद के लिए ही नहीं याद आता है, बल्कि इसलिए भी कि यह मौसम हमारे स्कूल की छुट्टियों का होता था, सारे भाई-बहनों से मिलने का.
बाबा ने बड़े प्यार से अलग-अलग जगहों से आम के कलम लाकर बाग लगाया था, जिसके स्वाद के प्यार में हमारे सारे नाते-रिश्तेदार आते-जाते रहते थे. आम का मौसम दो-ढाई महीने तक चलनेवाले किसी पारिवारिक उत्सव की तरह होता था. कोई रिश्तेदार कच्चे सीताफल को आश्चर्य के साथ खाने आता था, कोई बंबइया आम के भरपूर स्वाद में डूब जाने के लिए. जर्दालू आम तो बहुत खास रिश्तेदारों और करीबियों के लिए सुरक्षित होता था.
आम तो अब भी हैं, लेकिन अपनापन का वह मौसम ही बीत गया. बाग अब भी हैं, लेकिन विस्थापन ने हम सबको उससे दूर कर दिया. न कोई रखवाली करनेवाला बचा है, न अब खाने के लिए लोगों का जुटान ही होता है.
जिस बाग के आम कभी नहीं बिकते थे, अब उनको बेच देने के अलावा कोई चारा ही नहीं रह जाता है. सुबह-सुबह आम के टिकोलों पर पैर पड़ता है और रोज आम के उन मौसमों की याद आ जाती है, जब आम पारिवारिकता के उत्सव की तरह होता था.

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