कृषि बाजार का नया युग

‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ पुकारे जानेवाले इस देश में गांवों के सुख-दुख को किसानों के सुख-दुख से जांचने-परखने का चलन रहा है. लेकिन, हाल के दशकों में किसान किस दशा में जी रहे हैं, यह बात उनकी आत्महत्याओं के अंतहीन सिलसिले के बीच शायद ही किसी से छिपी हो. ये किसान-आत्महत्याएं ग्रामवासिनी भारतमाता का करुण क्रंदन हैं; […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 15, 2016 7:39 AM

‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ पुकारे जानेवाले इस देश में गांवों के सुख-दुख को किसानों के सुख-दुख से जांचने-परखने का चलन रहा है. लेकिन, हाल के दशकों में किसान किस दशा में जी रहे हैं, यह बात उनकी आत्महत्याओं के अंतहीन सिलसिले के बीच शायद ही किसी से छिपी हो. ये किसान-आत्महत्याएं ग्रामवासिनी भारतमाता का करुण क्रंदन हैं; इसमें यह गुहार है कि किसानी आधारित ग्रामीण भारतीय अर्थव्यवस्था को दम तोड़ने से पहले बचा लो. ऐसे विकट समय में किसानों को फसल-बीमा जैसा सुरक्षा-कवच प्रदान करने के बाद, अब राष्ट्रीय कृषि मंडी (एनएएम) योजना की शुरुआत यह उम्मीद जगाती है कि केंद्र की नयी सरकार किसानों को उनकी उपज का सर्वोत्तम मूल्य दिलाने के बारे में गंभीरता से सोच रही है.

पहले चरण में देश के आठ राज्यों की 21 मंडियों को इनसे जोड़ा गया है, जबकि महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्य, जहां अधिक संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, अभी इस ऑनलाइन मंच से दूर हैं. हालांकि, अगले दो वर्षों में देश की सभी 585 थोक मंडियों (कृषि उत्पादन बाजार समिति) को इस ऑनलाइन पोर्टल से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है, जहां किसान अपने 25 तरह के कृषि उत्पादों की नीलामी के जरिये बेहतर कीमत हासिल कर सकेंगे. हालांकि लाभकारी मूल्य पाने के लिए उन्हें फसल को तब तक अपने पास रखना होगा, जब तक कि मंडी उसे मन मुताबिक दाम न दे. फिलहाल ज्यादातर भारतीय किसान ऐसी स्थिति में नहीं हैं.

भारतीय किसानों के सामने जीवन और जीविका का सवाल कितना गंभीर हो चला है, इसका अंदाजा संयुक्त राष्ट्र की कुछ साल पहले की एक रिपोर्ट आसानी से लगाया जा सकता है. इसमें बताया गया था कि भारत में 1997 से 2005 के बीच प्रत्येक 32 मिनट पर एक किसान हालात से हार कर आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ. दरअसल, खाद-बीज-सिंचाई-कटाई आदि का खर्चा हाल के वर्षों में इतना ज्यादा बढ़ गया है कि किसान को सोचना पड़ता है कि कर्ज न लें तो खेती करें कैसे.

और बात सिर्फ खर्चे तक सीमित नहीं रहती. उसे तो यह भी सोचना पड़ता है कि अधिक उपज के वादे के साथ जो बीज बाजार ने महंगे दामों पर उसे बेचे हैं वे उपज देंगे या नहीं, ऊंची कीमत पर बाजार से जो कीटनाशक खरीदा गया है, वे कीटों पर कारगर होंगे या नहीं. कभी ऊंची कीमत देकर खरीदी गयी बीज से उपजी फसल बगैर बालियों और दानों वाली हो जाती है, तो कभी कीटनाशक कीटों की जगह फसल को ही बरबाद करनेवाला साबित होता है. दूसरी ओर खेती के लिए लिया गया कर्ज और उसका सूद लगातार चढ़ता ही जाता है.

कड़वी हकीकत यह भी है कि आजादी के सात दशक बाद भी देश के सकल फसली क्षेत्र का मात्र 46.9 प्रतिशत हिस्सा सिंचिंत है, शेष हिस्से को मॉनसून के भरोसे रहना पड़ता है. मॉनसून के भरोसे रहनेवाले इलाके में ही 84 प्रतिशत दलहन, 80 प्रतिशत बागवानी, 72 प्रतिशत तेलहन, 64 प्रतिशत कपास और 42 प्रतिशत खाद्यान्न का उत्पादन होता है. ऐसे में बीते दो सालों से कई राज्यों में सूखे की स्थिति के चलते लाखों किसानों को उपज के लाले पड़े हैं.

बीज, कीटनाशक और मौसम की अनिश्चितता की मार से यदि फसल बच जाती है, तब किसानों को बाजार में चढ़ती-गिरती कीमतों से जूझना पड़ता है. सरकार कहती है, बाजार की कीमतों पर उसका नियंत्रण नहीं, क्योंकि मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार की चाल से प्रभावित होते हैं.

लेकिन, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुनाफाखोरों के चंगुल में फंसे बाजार की यह चाल कई बार इतनी बेरहम हो जाती है कि फसल की लागत तो दूर, उसे खेत से बाजार तक पहुंचाने का खर्चा मिलना भी मुश्किल हो जाता है. अभी ऐसी ही खबर मध्य प्रदेश की बड़ी प्याज मंडी नीमच से आ रही है, जहां थोक में प्याज 20 से 50 पैसे प्रतिकिलो बिक रहा है, जबकि देश के बड़े शहरों में यही प्याज खुदरा बाजार में 20 से 30 रुपये प्रति किलो मिल रहा है. जाहिर है, भारत में किसानों और किसानी का संकट चौतरफा है और किसी एक चीज को ठीक कर देने से पूरी तस्वीर एकदम से नहीं बदल जायेगी, न ही यह सोचा जा सकता है कि सरकार की किसी नयी योजना का क्रांतिकारी परिणाम तुरंत देखने को मिल जायेगा.

फिर भी, राष्ट्रीय कृषि मंडी योजना यह उम्मीद तो जगा ही रही है कि देश के किसी कोने में किसी कृषि उत्पाद की आसमान छूती कीमत और दूसरे कोने में खरीदार नहीं मिलने पर उसे मंडी में फेंकने जैसी नौबत नहीं आयेगी. नयी इ-मंडी मांग और आपूर्ति के बीच की कड़ी को दुरुस्त करने में मददगार होगी.

बेची गयी फसल की कीमत किसानों के बैंक खाते में जाने से यह उम्मीद भी की जा सकती है कि बिचौलियों की भूमिका खत्म होगी और खरीद-बिक्री में पारदर्शिता आयेगी. फिलहाल इस महत्वाकांक्षी पहल के सकारात्मक नतीजे का इंतजार करना चाहिए. साथ ही यह उम्मीद भी करनी चाहिए कि देश के शेष राज्य भी अपनी कृषि विपणन नीति में जरूरी सुधार कर इस पहल को विस्तार देने में सहयोगी और सहभागी बनेंगे.

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