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आधुनिक राजनीति के आखिरी मुगल!

।। अजय सिंह।। (प्रबंध संपादक, गवर्नेस नाउ) अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के 27 जनवरी, 1858 से शुरू हुए 21 दिनों के ट्रायल से समकालीन भारतीय राजनीति कई सबक हासिल कर सकती है. तैमूरलंग-बाबर का गौरवशाली वंशज होने के बावजूद, जफर एक भिखारी लग रहे थे, जब अपनी जान बचाने के लिए सर्वस्व न्योछावर […]

।। अजय सिंह।।

(प्रबंध संपादक, गवर्नेस नाउ)

अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के 27 जनवरी, 1858 से शुरू हुए 21 दिनों के ट्रायल से समकालीन भारतीय राजनीति कई सबक हासिल कर सकती है. तैमूरलंग-बाबर का गौरवशाली वंशज होने के बावजूद, जफर एक भिखारी लग रहे थे, जब अपनी जान बचाने के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो गये थे, जबकि लोग कयास लगा रहे थे कि बुजुर्ग जफर सर्दी का मौसम भीझेल पाएंगे या नहीं. उन पर लगाये ज्यादातर आरोप आधे-अधूरे तथ्यों और अनुमानों पर ही आधारित थे, जो इस बादशाह के बारे में ब्रितानी हुकूमत की धारणाओं की पुष्टि करते थे.

यह सुनवाई भले ही उनके किले के अंदर हो रही थी, लेकिन हकीकत यही है कि यह एक अंतरराष्ट्रीय षडय़ंत्र का हिस्सा थी. जफर इस सुनवाई के दौरान डरे हुए थे, हालांकि उन्होंने उदासीनता की भावना प्रदर्शित की. उन्होंने ज्यादातर आरोपों से खुद के अनजान होने का बहाना बनाया, लेकिन उन्हें सहानुभूति हासिल नहीं हो पायी. देश से निर्वासित होने और बर्मा (म्यांमार) में दफन होने के बावजूद जफर भारतीय इतिहास में हमेशा याद किये जाते हैं, एक ऐसे असहाय सम्राट के रूप में, जिनका धर्मनिरपेक्ष और नैतिक आचरण वास्तव में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए था. क्या आज इतिहास खुद को फिर से दोहरा रहा है? इस सवाल के पीछे मेरा आशय सदियों तक भारत पर शासन करनेवाले महान राजवंश के वंशज को कमतर आंकने या प्रधानमंत्री के रूप में अपने एक दशक लंबे शासनकाल के आखिरी दिनों में पहुंचे राजनेता का उपहास करने का नहीं है. मैं सिर्फ इस तथ्य पर जोर देना चाहता हूं कि इतिहास आपके द्वारा छोड़ी गयी विरासत का निर्मम परीक्षण करता है और इसमें कभी दयालु नहीं होता.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही अर्थशास्त्री हों, लेकिन वे भारत के इतिहास से अनजान नहीं हैं. हाल में उन्होंने अपने आवास पर आयोजित एक कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी, जिसमें उनकी पुत्री उपिंदर सिंह द्वारा लिखित भारतीय इतिहास से संबंधित एक तथ्यपरक एवं विद्वतापूर्ण पुस्तक रिलीज की गयी थी. उपिंदर सिंह दिल्ली के प्रतिष्ठित संत स्टीफेंस कॉलेज में इतिहास पढ़ाती हैं. उनकी पुस्तक प्राचीन से लेकर आरंभिक मध्यकालीन भारत के इतिहास का सुविस्तृत विवरण पेश करती है. लेकिन विडंबना यह है कि भारतीय इतिहास का गौरवशाली चरण माने जानेवाले मौर्य साम्राज्य के विवरण को इस पुस्तक में 50 से भी कम पृष्ठों में समेटा गया है, जबकि सम्राट अशोक से जुड़े पुरातात्विक, मुद्रा संबंधी और ऐतिहासिक विरासत को ज्यादा पन्ने समर्पित किये गये हैं.

यह सोचना बचकाना ही होगा कि शिक्षाविदों से घिरे विद्वान प्रधानमंत्री इतिहास लेखन के इस बुनियादी सिद्धांत से अनजान होंगे, कि किसी के द्वारा छोड़ी विरासत ही भावी पीढ़ी के लिए उसके बारे में मूल्यांकन का एकमात्र स्नेत होती है. इसे मनमोहन सिंह से बेहतर शायद ही कोई समझ सकता है. गत तीन जनवरी को अपने आखिरी संवाददाता सम्मेलन में अपनी वर्तमान स्थिति की आलोचनाओं से बचने के लिए प्रधानमंत्री ने बार-बार इतिहास की शरण लेने की कोशिश की. लेकिन मनमोहन सिंह जानते हैं कि सम्राट अशोक के विपरीत, वे शायद ही कोई ऐसी विरासत छोड़ कर जा रहे हैं, जिनके जरिये इतिहास की पुस्तक में उनके बारे में कोई सकारात्मक टिप्पणी लिखी जा सके.

इसमें संदेह नहीं है कि लगातार दो कार्यकाल तक प्रधानमंत्री रहने के कारण, मनमोहन सिंह ने भारत के इतिहास में अपना नाम सुरक्षित करा लिया है. लेकिन उनकी सेवा की क्षमता को उनके द्वारा छोड़ी गयी संदिग्ध विरासत की सावधानी पूर्वक जांच के जरिये ही समझा जा सकता है. मसलन, भारत-अमेरिका परमाणु करार, जिसे उन्होंने अपने कैरियर का सर्वोच्च क्षण बताया है, भी उनके पतन का ही एक क्षण था, जब उनकी सरकार अस्तित्व बचाने के लिए सांसदों की बेशर्म खरीद-फरोख्त में लिप्त दिखी थी. जाहिर है, इसे लेकर इतिहास उनका अलग-अलग तरीकों से मूल्यांकन करेगा कि परमाणु करार के लिए बनाये गये विभिन्न दबावों के दौरान उन्होंने आचरण और नैतिकता के सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. पतन के ऐसे कई क्षणों में उन्हें संदेह का लाभ मिलता रहा है.

इससे इतर, सिंह के कार्यकाल को वास्तव में अपना अस्तित्व बचाये रखने की प्रवृत्ति में उनके स्थायी विश्वास के रूप में ही देखा गया है. इस कार्यकाल की शुरुआत से ही उनकी मानहानि होती रही है. जो लोग यूपीए-वन सरकार के कामकाज की हकीकत से वाकिफ हैं, उन्हें पता है कि तब कुछ मंत्रियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय से मिली पूर्ण स्वायत्तता का आनंद उठाया. प्रणब मुखर्जी, कमलनाथ, शरद पवार, दयानिधि मारन और ए राजा तब अपने-अपने मंत्रलयों के फैसले मनमाने तरीके से ले रहे थे और पीएमओ इस ओर से लगातार आंखें मूंदे रहा था. इस दौरान ऐसे कई मौके सामने आये, जिसमें कमलनाथ का वाणिज्य मंत्रलय पीएमओ की नीतियों से इतर काम करता दिखा था. इसी तरह, पवार, मारन और राजा सहित गंठबंधन के सहयोगी दलों के लगभग सभी मंत्री पीएमओ की अनदेखी करते रहे, जबकि असली नेता यानी कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के प्रति कहीं ज्यादा वफादारी दिखाते रहे. यद्यपि, सत्ता का यह दो ध्रुव प्रधानमंत्री के रूप में सिंह का अस्तित्व बचाये रखने में मददगार साबित हुआ, लेकिन इसने सांठगांठ के पूंजीवाद की संस्कृति और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया. इसी की परिणति के रूप में टूजी और कोलगेट जैसे घोटाले सामने आये. इसने सत्तारूढ़ दलों के नेताओं में साहस की भावना का संचार किया और उन्होंने सीएजी और सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक संस्थाओं का उपहास करने, उनकी गरिमा को नीचा दिखाने और उनके कामकाज में दखल देने की कोशिश की.

इस बीच देश ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा का विस्मयकारी पतन देखा है. मनमोहन सिंह की स्थिति लगभग ऐसी बना दी गयी, जिसकी तुलना बहादुर शाह जफर से की जा सकती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका आदेश पुरानी दिल्ली के दुर्ग के भीतर भी नहीं चलता था. ऐसे में कार्यकाल के अंत की ओर बढ़ रहे मनमोहन सिंह समकालीन विश्लेषकों से ज्यादा भविष्य के इतिहासकारों से ही उम्मीद कर सकते हैं कि वे उनके द्वारा छोड़ी विरासत का सही मूल्यांकन करेंगे! संभवत: इतिहास में अपने लिये जगह बनाने के प्रति उनमें इतना अधिक लगाव था कि उन्होंने वर्तमान में अपने लिये कोई जगह बनाने की भावना को खो दिया. दुर्भाग्य से मनमोहन सिंह विंस्टन चर्चिल नहीं हैं, जो कहा करते थे, ‘इतिहास मेरे प्रति उदार होगा, क्योंकि मैं इसे लिखना चाहता हूं.’

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